कब किस लम्हे में कोई याद दिल को सुलगा जाती है
ना दिल जाने है, ना ही लम्हा इसे समझाता है
बस आग की लपटो में उलझन की गांठे नजर आती है
जो टूटती भी नहीं और हांथो से छूटती भी नहीं है
एक वक़्त के रंग में और मजबूत होती इन गांठो में
कभी कभी ऐसा लगता है जैसे रूह उलझ गयी हो
एक कैद सी महसूस होती है और फिर आजादी की चाहत
और हर कोशिश में उलझनो का दलदल रूह को और धसा देता
आलम ये था की आजादी की चाहत ने रूह को और उलझा दिया
हर छटपटाहट और वक़्त ने आजादी भूल जाने को कहा
और उलझी रूह के कुछ खूबसूरत पहलू दिखाये
पर नादान दिल कहा वक़्त की सुनने वाला था
कोशिशो पे कोशिश करता रहा और रूह कैद होती चली गयी
और धीरे धीरे ना तो दिल ही रहा ना तो रूह ही रही बाते करने को .....
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