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Showing posts with the label Poem(Hindi)

फिरंगिया(मनोरंजन प्रसाद सिन्हा)

   असहयोग आंदोलन के दौरान 1921 में मनोरंजन प्रसाद सिन्हा द्वारा रचित भोजपुरी कविता फिरंगिया। भारत में प्रतिबंध लगने की वजह से यह कवित मारीशस देश में प्रकाशित हुई और वहाँ से इसका प्रचार भारत में भी हुआ। सुन्दर सुघर भूमि भारत के रहे रामा आज इहे भइल मसान रे फिरंगिया अन्न धन जल बल बुद्धि सब नास भइल कौनों के ना रहल निसान रे फिरंगिया जहॅवाँ थोड़े ही दिन पहिले ही होत रहे लाखों मन गल्ला और धान रे फिरंगिया उहें आज हाय रामा मथवा पर हाथ धरि बिलखि के रोवेला किसान रे फिरंगिया सात सौ लाख लोग दू-दू साँझ भूखे रहे हरदम पड़ेला अकाल रे फिरंगिया जेहु कुछु बॉचेला त ओकरो के लादि लादि ले जाला समुन्दर के पार रे फिरंगिया घरे लोग भूखे मरे, गेहुँआ बिदेस जाय कइसन बाटे जग के व्यवहार रे फिरंगिया जहॅवा के लोग सब खात ना अधात रहे  रूपयासे रहे मालामाल रे फिरंगिया उहें आज जेने-जेने आँखिया घुमाके देखु  तेने-तेने देखबे कंगाल रे फिरंगिया बनिज-बेपार सब एकहू रहल नाहीं सब कर होइ गइल नास रे फिरंगिया तनि-तनि बात लागि हमनी का हाय रामा जोहिले बिदेसिया के आसरे फिरंगिया कपड़ों जे आवेला बिदेश से त हमनी का पेन्ह के रखि...

सियासती ईमान

 सियासत के मैदान में दल बदलते ईमान है सब के सब चोर है बैठे खुद को कहते जो महान है लूट रही जनता है भोली बेईमानो की ये दास्तान है  घोटालो के पन्नों में  लिखे इनके अरमान है  भूखी जनता झोपड़ो में  महलों में इनके पकवान है  चुनावी मेढ़क है सारे  टर टर इनके ज़बान है   सियासत का घमासान है  दल बदलते ईमान है  नेता जन की पार्टी ना पूछो  जहाँ मौका वही पहलवान है  लक्ष्मण तो कोई बचा नहीं  विभीषण सारे महान है  पैसो में बिक रहे  नेता के गुणगान है गिरगिट भी  हैरान है  देख रंग इतने परेशान है  बैठा है सोच में इस  की सियासत अब्बा जान है  सियासत का घमासान है  दल बदलते ईमान है ......

तो कर फतह दिखा देंगे .....

जीत ही जो लक्ष्य है  तो हार से क्यों थमे  आसमान से कह दो की  हौसले बुलंद है  तोड़ कर हर बंदिशों को  लक्ष्य को पा लेंगे  गर्दिशो के तारो को  औकात भी दिखा देंगे  वक़्त की कठनाईयोँ में भी  राह हम तराशेंगे  असंभव सा जो है बैठा  फतह उसपे पा लेंगे  देख ले आगाज़ तू  अंजाम भी दिखा देंगे  हौसलों की राह से  हर मुश्किलें मिटा देंगे  हार की गहराइयों से  जीत को चुरा लेंगे  आसमान पर जीत का  डंका यूँ बजा देंगे  वक़्त तू भी देखना  वक़्त कैसा ला देंगे  मुश्किलों की धरती पर  उम्मीद भी जगा देंगे  जीत ही जो लक्ष्य है  तो कर फतह दिखा देंगे .....

बड़ी दूर उड़ गया वो परिंदा

बड़ी दूर उड़ गया वो परिंदा ख्वाइशे इश्क़ की मुहब्बत में बेखबर इस बात से की दिन के प्रहर ख़तम हो गए अँधेरे के साथ रास्तों की उलझने ना जाने किस ओर भटका गयी दूर तलक आशियान ना था रात सर्द और जहाँ ना था हर ओर बहता तूफान एक बेदर्द कोई ईमान ना था पलके थी नम ढलती हुयी पंखो में कोई जान ना था उड़ते पंखो में टूटा यूँ बाकी कोई अरमान ना था बड़ी दूर उड़ गया था वो परिंदा ख्वाईशो का अब तूफान ना था .....

कोई और सबेरा ना हो अब

एक रात हो ऐसी काली सी कोई और सबेरा ना हो अब मांगे ये दुआ अब दिल मेरा कोई और बसेरा ना हो अब हम चलते रहे बस राहों में मंजिल बाखुदा ना हो अब बिखरे टुकड़े हम चुन लेंगे तू काँच बिखेर बस राहो में हसरत का पता अब रब जाने हम टूटे है इस पल में अब उम्मीदों से नाउम्मीदिगी है हर ओर खता कुछ यूँ बैठी है दिल रोता है अब रातो में आँखों में खला कुछ यूँ बैठी है दर्द के लम्हे पलकों में पलकों में दुआ कुछ यूँ बैठी एक रात हो ऐसी काली सी कोई औऱ सबेरा ना हो बस .....

बिकता इंसान

बिक रहा इंसान, बिक रहा है प्यार खाली सी इस दुनिया में बस रह गया व्यापार चीखे बिकती है खबरों में आज आंसू किसानों के और सूखे से साज बिकते है अनाज कौड़ी के दाम पर और पत्थर बिक रहे आज ईमान पर संसद में खड़े शैतान बिक रहे हर गली में लोगो के गिरेबान बिक रहे साहिल पे आज तूफान बिक रहे हर कदम पे सपने अंजान बिक रहे होंठो पे झूठ सरे आम बिक रहे यूँ कठघरे में इंसान बिक रहे नोटों पे आज भगवान् बिक रहे मंदिर में दुआ के पैगाम बिक रहे बिक गए बादल बारिशो के भी और सूखे खेतों पे मकान बिक रहे अश्क़ बिक रहे है माँ के आज जब भूखे बच्चे अंजान बिक रहे बेच देना मुझे भी उन अश्क़ो पे खुदा जो चंद सिक्कों के दाम बिक रहे .....................

उलझी सी डाली

यादो की उलझी सी डाली पे ना जाने कब परिंदो ने घर बना लिया मैंने कई दफा सोचा सुलझने को पर परिंदो का घर ना तोड़ सका वक़्त गुजरता रहा और उलझने वही रही धीरे-धीरे परिंदो की कई पीढ़ीया बीत गयी कल जहाँ चंद तिनके ना बिखेर सका आज उस शाख पर कई घर बस गए और हर गुजरते लम्हे में घरो का बोझ शाख को एक ओर झुकाता रहा और शाख वक़्त दर वक़्त पेड़ से उखड़ने लगा धीरे धीरे वक़्त उस ओर बढ़ने लगा जब उलझी शाख जुदा होने को तैयार और उलझन अब इस बात की थी की कई परिंदे कही बेघर ना हो जाएंगे ......

कैद

कब किस लम्हे में कोई याद दिल को सुलगा जाती है  ना दिल जाने है, ना ही लम्हा इसे समझाता है  बस आग की लपटो में उलझन की गांठे नजर आती है  जो टूटती भी नहीं और हांथो से छूटती भी नहीं है  एक वक़्त के रंग में और मजबूत होती इन गांठो में  कभी कभी ऐसा लगता है जैसे रूह उलझ गयी हो  एक कैद सी महसूस होती है और फिर आजादी की चाहत  और हर कोशिश में उलझनो का दलदल रूह को और धसा देता  आलम ये था की आजादी की चाहत ने रूह को और उलझा दिया  हर छटपटाहट और वक़्त ने आजादी भूल जाने को कहा  और उलझी रूह के कुछ खूबसूरत पहलू दिखाये  पर नादान दिल कहा वक़्त की सुनने वाला था  कोशिशो पे कोशिश करता रहा और रूह कैद होती चली गयी  और धीरे धीरे ना तो दिल ही रहा ना तो रूह ही रही बाते करने को .....

लिख दू

दर्दो को कैसे मैं आज लिख दू बरसो के रूठे कैसे अलफ़ाज़ लिख दू  तन्हाई ने दिया ख़ामोशी का सबब  कैसे तनहा सारे राज लिख दू वक़्त ने सिला दिया बेबसी का  बेबसी के कौन से साज लिख दू  कैद है उलझनों की हर तरफ  उलझन पे उलझन के नाज लिख दू  दर्द में डूबे हुए अश्क़ो को  दर्द की नयी एक आवाज़ लिख दू  क्या लिखे क्या ना लिखे  किस मोड़ को नया आगाज़ लिख दू .....

आस

अँधेरे का मैं कायल हूँ क्यू खीचते फिर मुझे उजाले है शायद कोई आँधी है बाकी जो ताकते मुझे किनारे है उम्मीद के धागे है टूटे पलकों पे दर्द के प्याले है बेचैन सी ठहरी रातो में कुछ मर्ज़ तो काफी पुराने है सूखे पत्तो की डाली को चिंगारी एक सुलगती है बारिश का तो पता नहीं अब राख महकती जाती है कुछ तेज हवा के झोको ने लपटो को यूँ बहलाया एक शाख के जलने के संग पूरे जंगल को है जलाया बेघर से परिंदे यूँ टूटे कुछ आस नजर नहीं आती है है नजर गयी जहा दूर तलक बस राख नजर ही आती है है नजर गयी जहा दूर तलक बस राख नजर ही आती है .....

साज

किस साज पे नजम महकता है किस साज पे नींदे उड़ती है किस दर्द में फूल बिखरता है किस बात पे कांटे चुभते है हर धड़कन है उलझी हुयी किस धड़कन पे तुम हम मिलते है है वक़्त बैगाना सा लम्हा जो दर्द समेटे बूँदों में किस बूँद में है तेरी सूरत किस बूँद में खाली सपने है ये मोड़ है कैसा अश्क़ो का सीने से जो गुजरता है हर खालीपन की आहाट पे तेरे नाम पे ठहरता है एक बैचेनी है साँसों में जो साँस के साज को तोड़े है फिर भी तू महके साँसों में जैसे आस आस को तोड़े है .....

धागे

कुछ धागे तोड़े हमने ऐसे  जो दर्द बड़ा अब देते है  कई कोशिशे की जोड़ने की  हर कोशिश रुला देते है  ना जुड़ते है ना जुदा होते है  बस दर्द सदा देते है  साँसों में अश्क़ घुलते  हर साँस दगा देते है  घुटती है धड़कने पल पल  हर पल ये गवाह देते है  खोते से खवाब सारे  अश्क़ सजा देते है  रहगुजर कसर बाकी सारी  कफ़न साँसे दबा देती है  जाये भी तो किस ओर हम  हर ओर दगा देती है  तोड़े थे कुछ धागे हमने  जो दर्द बया अब देते है .....

उम्मीद

अक्सर देखा है हमने  मुफ़लिसों के शहर में  दीवानी रात बैंगानी होती है  बाते तो होती है मगर  जुबा खामोश हर रात होती है  .  पढ़ लेते वो नजरे काश  तो बाते सब साफ़ होती है  लड़खड़ाती सी जुबाँ पे  राते सब साफ़ होती है  .  उम्मीदों ने खोले पर तो  आसमान बेपाक होते है  जमीन तो होती है पर  काँटे साथ होते है  .  दो कदम के सफर में  अलफ़ाज़ साथ होते है  टूटे से लफ्ज़ो में  दर्द अलफ़ाज़ होते है  .  अक्सर देखा है हमने  मुफ़लिसों के शहर में  टूटे से पँखो पे  उम्मीद बेपाक होते है .....

दर्द..

दो पन्नो की किस्मत में गम के पन्ने चार है हर पन्नो पे दर्द एक मुकम्मल तलबगार है आसमान ने छीन लिया एक हक़ मुझसे और जमीन के एक रह गए हम गुनहगार है . उड़ते हुए पंछी से वास्ता क्या हमारा टेढ़े रास्तो के भी हम एक कर्जदार है छलनी है रूह एक अपनों के तीरो से हर तीर के यहाँ कितने किस्सेदार है . अश्क़ो में डूबी धड़कने भी बेकार है धड़कनो को बाटते फिर भी हिस्सेदार है बच गयी चंद लम्हो की साँसे कुछ दरम्यान जब साँसों से रूठी हर साँस हक़दार है .....

उठते कदम

कदम उठते है तेरी ओर, और फिर थम जाते है  काबिल ना तेरे है हम, ये खुद को हम समझाते है  आइना चाँद है तेरा, तू बेवक़त झलकता इसमें  दीद को तेरी ऐसे यूँ रात गुजर जात े है प्रहर शाम की कटती लेकिन सुबह तो बेअसर नजर आते है टूटता हूँ की बिलखता मै हूँ, खवाइश चंद अज़रार सिमट जाते है अश्क़ में भी तराशु तुझको, बेवजह उम्मीदे कतल हो गए चाहतो का पता ना मिला और फासले ही फसल हो गए वक़त के भी साये पराये होने लगे यूँ जिन्दा रह कर जिन्दा दफ़न हो गए .....

ईमान

मंदिर और मस्जिद में ईमान बिक रहा है खुदा के नाम पर अरमान बिक रहा है पैसे में तो तोल दी ये दुनिया सारी इस कदर कुछ आज इंसान बिक रहा है कागजो में झूठ सरेआम बिक रहा है यूँ खुद्दारों का ईमान बिक रहा है मुह फेरा है सब ने सच से ऐसे सच की हथेली पर मान बिक रहा है दामन तो मैले है यहाँ पर सबके नए कपड़ो में बेईमान बिक रहा है दुवाओं की भी कीमत लगा दी और यूँ खामोश भगवान बिक रहा है लोग बिक रहे है पहचान बिक रहा है हर सख्स खुद से अनजान बिक रहा है ख्वाइशों के परिंदो ने जो दम तोडा तो बैशाखी पे ख़्वाब नादान बिक रहा है दो वक़त ठहर तू भी यहाँ जरा देख कैसे आज गुलफाम बिक रहा है .....

आँखे

क्यू बेचैनी है आँखों में ऐ ख़्वाब जरा तू सोने दे एक तेरी खातिर जगे थे हम अब चैन से मुझको रोने दे कुछ पहलु तेरे ऐसे है जो आधे अधूरे से पूरे है तस्वीर न उनकी बन पायी बेपाक से यूँ हुए सवेरे है हर साँस पे पहरे थे मेरे जब सच करने की तुझे साजिस थी अब टूट चूका है तू मुझमे आँखों में घने अन्धेरे है .....

वीर

ये युद्ध के मैदान है लहू के रंग ही जाने है है वीर की तलब इसे हर जज्बे को पहचाने है हर शाम है ढली यहाँ साँसे कई वीरो की हर सुबह में है रक्त की लाली यहाँ घुली हुई वो आसमान भी देखता है ये रंगमंच जान कर की आज फिर लहू बहे युद्ध के मचान पर जिन्हे इश्क़ भी है जंग से और चाहत लहू के रंग से बन के अधर है वो खड़े मातृभूमि के इस तरंग में .....

प्रोजेक्ट

प्रोजेक्ट नहीं है खास, फिर भी प्रोफेसर को है आस की होगा अब धमाल, करेंगे हम जैसे भी कमाल तो लो हो गया जो होना था, बना दिया प्रोजेक्ट को एक सवाल सुलझे न जो किसी से, ये है ऐसा एक बवाल रातो को इसने हमें जगाया, फिर भी समझ मे कुछ ना आया इस पर भी करते है मस्ती, ऐसी है हमारी बस्ती बचा न कोई इस वार से, प्रोफेसर की फटकार से फिर भी लैब का किया बंटाधार, ऐसे ही हैं हमारे यार जब भी प्रोफेसर ने बैंड बजाया, उसे मस्ती मे हमने उड़ाया हमने इन बजते पलो को, और भी हसीन बनाया देख हसीना को हर जगह, हमने बस सीटी बजाया अपने बैंड के किस्सो से, कितनो की मुस्कान सजाया करते हम लैब का बहिस्कार, इस्से हुए कितने अविष्कार समझते नहीं प्रोफेसर इसे, और करते रहे हमारा तिरस्कार इस तिरस्कार के दम पर, कुछ ऐसा अविष्कार कर जायेंगे हुआ नहीं था अब तक जो, वो काम हम कर जायेगे आयी है अब आन पे, खलेंगे अब जान पे प्रोजेक्ट के अंतिम छणो मे, करेंगे काम तमाम से इस प्रोजेक्ट की गाथा, ऐसी हम बनायेंगे सुने सभी दिल थाम के, इतना झूठ मिलायेंगे ....................................

रावण

बीवी मिले दस तो भी कम है क्योंकि हमारे पास रावण से ज्यादा दम है सर दस नहीं पर ताकत है इसमें ना भ्रम है भले ही हम करते ना कोई परिश्रम है आज भी हमें कोई आजमा कर देख ले किसी भी आखाड़े मे लड़ा कर देख ले और अगर कोई भी न हो राजी तो फिर रावण को ही बुला कर देख ले रावण से अब लड़ा कर देखंगे पंजा जीतेंगे या फिर हो जायेंगे गंजा पर हमें हराये नहीं किसी में ऐसी ताकत हमने बनायीं है कितनो की शामत दुल्हन को लाओ और रावण को भगाओ यार वरना करवा दोगे तुम इसका मुझसे संहार आयी ना पहली और दसवी का है इंतजार हम तो कब से है इनकी खातिर बेक़रार ...........................................