बारिश
भी आ करके थम गयी
बस
अश्क़ अपना तक़ाज़ा लगाना भूल गए .....
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जरूरतों
से कुछ यूँ तौबा कर ली
की
शिकायतें मुझमे लाजिम होने लगी .....
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शर्तो पे इश्क़ नहीं, समझौते
होते है जनाब .....
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अब
दर्द सम्हलता नहीं इन साँसों में
खुदा
तू ही कुछ तरीका बता .....
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पर उनकी भी जिद थी आग लगाने की .....
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होश
की चाहत में ये बात हो गयी
बेहोशी
फिर थोड़ा आज बर्बाद हो गयी .....
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किस्से
अब बयां करे भी तो क्या
लफ्ज़
होँठो पे आके मुकरने लगे है .....
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निकले
थे दो वक़्त की रोटी के तलाश में
और
लौटे तो चैन भी कही पर खो कर .....
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सोचा
इश्क़ अदा कर दे नादानियों से
पर
होश ने जिद की तारे ही ना छोड़ी .....
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इश्क़ की कीमत
तनहाईयों से चुकायी ही थी
की
वो फिर आ गए दिलग्गी के लिए .....
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हर
जर्रे पे कर्ज बढ़ता रहा
और
हम उलझे रहे पुरानी गिनतियों में .....
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ऐ
जिंदगी एक तुझे समझने क्या बैठा
मैं
खुद ही उलझ के रह गया .....
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बड़ी
मुशकिल से समेटा था रेत हथेलियों पर
और
राह के ठोकर ने झटके में सब बिखेर दिया
....
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वो
दरिया थी तूफ़ान की और मैं कागज़ की कश्ती
थी
लहरो पर यूँ रवानगी उनकी, की लूट ली मेरी हस्ती .....
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अब
तो रास्तें भी घर का पता बता देते है
भटके
भी तो अब किस बहाने से .....
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आँखों
में अश्क़ो का पता कर गयी
नींदे
जागती रातो में ये खता कर गयी .....
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बेहोशी
का पता, ऐ खुदा बता मुझको भी
होश
वालो की शोहबत में अब वो मज़ा नहीं
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क्या
फर्क पड़ता है की वो चाँद था या नहीं
आँखों
में मेरी तो रोशन वही था
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कसूर
दे तो भी इन नजरो को क्या
ख़्वाब
दिखाये सारे टूटने की खातिर .....
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पता नहीं उजाले अब क्यू अँधेरी गलियों में नज़र
आते है .....
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