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नल दमयंती कथा

 जूआ में सब कुछ हार कर वनवास के दौरान एक दिन धर्मराज युधिष्ठिर दुखी बैठे थे। उन्होंने अपनी कहानी महर्षि बृहदश्व को सुनाकर पूछा- क्या आपने मुझ जैसा भाग्यहीन राजा देखा है?

फिर महर्षि बृहदश्व ने धर्मराज युधिष्ठिर को नल-दमयन्ती की कथा सुनाई-

निषाद देश में राजा वीरसेन के पुत्र नल थे। वे बड़े गुणवान्, परम सुन्दर, सत्यवादी, जितेन्द्रिय, सबके प्रिय, वेदज्ञ एवं ब्राह्मणभक्त थे। उनकी सेना बहुत बड़ी थी और वो स्वयं अस्त्रविद्या में बहुत निपुण थे। वे वीर, योद्धा, उदार और प्रबल पराक्रमी भी थे। उन्हें जूआ खेलने का भी कुछ शौक था।

उन्हीं दिनों विदर्भ देश में भीम नाम के एक राजा राज्य करते थे। वे भी नल के समान ही सर्वगुण सम्पन्न और पराक्रमी थे। राजा भीम ने दमन ऋषि को प्रसन्न करके, उनके वरदान से चार संतानें प्राप्त की थीं। जिनमे तीन पुत्र और एक कन्या थी। 

पुत्रों के नाम- दम, दान्त, और दमन 

पुत्री का नाम- दमयन्ती 

दमयन्ती लक्ष्मी के समान रूपवती थी। उसके नेत्र विशाल थे। देवताओं और यक्षों ने भी वैसी सुन्दरी कन्या कहीं नहीं देखि थी। उन दिनों कितने ही लोग विदर्भ देश से निषाद देश में आते और राजा नल के सामने दमयन्ती के रूप और गुण का बखान करते। निषाद देश से विदर्भ में जाने वाले भी दमयन्ती के सामने राजा नल के रूप, गुण और पवित्र चरित्र का वर्णन करते। इस प्रकार दोनों के हृदय में पारस्परिक अनुराग अंकुरित होने लगा।

एक दिन राजा नल ने अपने महल के उद्यान में कुछ हंसों को देखा। उन्होंने  मेहनत के बाद एक हंस को पकड़ लिया। हंस ने कहा- आप मुझे छोड़ दीजिये तो हम लोग दमयन्ती के पास जाकर आपके गुणों का ऐसा वर्णन करेंगे कि वह आपको अवश्य वर मान लेगी। नल ने हंसो को छोड़ दिया। वे सब उड़कर विदर्भ देश में चले गये। दमयन्ती सुन्दर हंसों को देखकर बहुत प्रसन्न हुई और हंसों को पकड़ने के लिये उनकी ओर दौड़ने लगी। दमयन्ती जिस हंस को पकड़ने के लिये दौड़ती, वही बोल उठता कि- अरी दमयन्ती! निषाद देश में एक नल नाम का राजा है। वह अश्विनीकुमार के समान सुन्दर है। मनुष्यों में उसके समान कोई और सुन्दर नहीं है। वह मानो मूर्तिमान कामदेव है। यदि तुम उसकी पत्नी बन जाओ तो तुम्हारा जन्म और रूप दोनों सफल हो जाए। हम लोगों ने देवता, गंधर्व, मनुष्य, सर्प और राक्षसों को देखा है, पर नल के समान कोई भी सुन्दर नहीं है। जिस तरह से तुम स्त्रियों में रत्न हो, वैसे ही नल पुरुषों में भूषण है। तुम दोनों की जोड़ी बहुत ही सुन्दर होगी। 

दमयन्ती ने कहा- हंस! क्या तुम नल से भी मेरे विषय में ऐसी बात कहोगे? 

फिर हंस ने निषाद देश में लौटकर नल से दमयन्ती का संदेश कह दिया।

दमयन्ती हंस के मुँह से राजा नल की कीर्ति सुनकर उनसे प्रेम करने लगी। उसकी आसक्ति इतनी बढ़ गयी कि वह रात-दिन उनका ही ध्यान करती रहती। जिससे दमयन्ती का शरीर धूमिल और दुबला हो गया। वह दीन-सी दिखने लगी। सखियों ने दमयन्ती के हृदय का भाव जानकार विदर्भराज भीम से निवेदन किया कि आपकी पुत्री अस्वस्थ हो गयी है। राजा भीम ने अपनी पुत्री के सम्बन्ध में बड़ा विचार किया। अन्त में वह इस निर्णय पर पहुँचे कि मेरी पुत्री विवाहयोग्य हो गयी है, इसलिये इसका स्वयंवर कर देना चाहिये। उन्होंने सब राजाओं को स्वयंवर का निमन्त्रण-पत्र भेज दिया और सूचित कर दिया कि राजाओं को दमयन्ती के स्वयंवर में पधारकर लाभ उठाना चाहिये। कई देशो के राजा हाथी, घोड़े और रथों की ध्वनि से पृथ्वी को मुखरित करते हुए सज-धजकर विदर्भ देश में पहुँचने लगे। 

देवताओं को भी दमयन्ती के स्वयंवर का समाचार मिल गया। देवता इत्यादीगढ़ भी विदर्भ देश के लिये रवाना हुए। राजा नल का चित्त पहले से ही दमयन्ती पर आसक्त हो चुका था। उन्होंने भी दमयन्ती के स्वयंवर में सम्मिलित होने के लिये विदर्भ देश की यात्रा की। देवताओं ने स्वर्ग से उतरते समय देख लिया कि कामदेव के समान सुन्दर राजकुमार नल राजकुमारी दमयन्ती के स्वयंवर के लिये जा रहे हैं। नल की सूर्य के समान कान्ति और लोकोत्तर रूप-सम्पत्ति से देवता भी चकित हो गये। 

देवता गढ़ ने नल से कहा- राजेन्द्र नल! आप बड़े सत्यव्रती हैं। आप हम लोगों की मदद कीजिये।  

नल ने प्रतिज्ञा कर ली और कहा कि- मैं मदद करूँगा। फिर पूछा कि- आप लोग कौन हैं और मुझसे कैसी मदद चाहते हैं? 

इन्द्र ने कहा- हमलोग देवता हैं। मैं इन्द्र हूँ और ये अग्नि, वरुण और यम हैं। हम लोग दमयन्ती के लिये यहाँ जा रहे हैं। देवताओं ने नल से कहा कि आप हमारे दूत बनकर दमयन्ती के पास जाइये और कहिए कि इन्द्र, वरुण, अग्नि और यमदेवता तुम्हारे पास आकर तुमसे विवाह करना चाहते हैं। इनमें से तुम चाहे जिस देवता को पति के रूप में स्वीकार कर लो। 

नल ने दोनों हाथ जोड़कर कहा कि- देवराज! आप लोग और मैं एक ही प्रयोजन से विदर्भ देश जा रहे है। इसलिये आप मुझे दूत बनाकर वहाँ भेजें, यह उचित नहीं है। जिसकी किसी स्त्री को पत्नी के रूप में पाने की इच्छा हो चुकी हो, वह भला उसको कैसे छोड़ सकता है और उसके पास जाकर ऐसी बात कह ही कैसे सकता है? 

मदद ना कर सकने की विवशता को बयां करते हुये राजकुमार नल ने छमा माँगी। तब देवताओं ने उन्हें उनकी प्रतिज्ञा याद दिलायी। जिसके बाद नल देवताओं का दूत बनकर दमयंती के पास पहुंचे।  

दमयंती नल के सौंदर्य को देख कर आश्चर्यचकित हो गयी। उसने नल से उनका परिचय पुछा।  नल ने अपना परिचय देकर दमयंती को बताया की वो देवताओं के दूत के रूप में दमयंती से मिलने आये है और नल ने देवताओं का संदेश दमयंती को दिया। तब दमयंती ने नल बताया की उसने काफी पहले ही नल को अपना वर मान लिया है। जब नल ने अपनी विवशता प्रकट की तो दमयंती ने सलाह दी की स्वयंवर के दिन वो देवताओं के साथ स्वयंवर में पधारे। जहाँ दमयंती देवताओं के समक्ष नल को अपना वर चुनेंगी। 

जब ये बात देवताओं को पता चली तो वो स्वयंवर के दिन नल का रूप धरकर आ गए। स्वयंवर में एक साथ कई नल खड़े थे। सभी परेशान थे कि असली नल कौन होगा। दमयन्ती ने भगवान का ध्यान किया और उसने पाया की नल रूपी देवता के तन पर पसीने की एक बूँद भी नहीं। उसने आंखों से ही असली नल को पहचान लिया। सारे देवताओं ने भी उनका अभिवादन किया। इस तरह आंखों में झलकते भावों से ही दमयंती ने असली नल को पहचानकर अपना जीवनसाथी चुन लिया। नव-दम्पत्ति को देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त हु्आ। दमयन्ती निषाद-नरेश राजा नल की महारानी बनी। दोनों बड़े सुख से समय बिताने लगे।

जिस समय देवता स्वयंवर से लौट रहे थे तो रास्ते में उन्हें द्वापर और कलियुग मिले। कलियुग ने इंद्र को बताया की वो दमयंती के स्वयंवर में जा रहे है। तब इंद्र ने कलियुग और द्वापर को बताया की स्वयंवर समाप्त हो चूका है और दमयंती ने नल को अपना वर चुन लिया है। यह सुनकर कलियुग को गुस्सा आ गया और उसने कलियुग ने नल-दमयंती को दण्ड देने की सोची। 

पर नल और दयमंती दोनों धर्मो का पालन करते हुये जीवन यापन करते थे। उन्होंने कोई ऐसी गलती नहीं की जिससे कलियुग उन्हें सजा दे सके। तब कलियुग समय बदलने का इंतज़ज़र करने लगे।   

दमयन्ती पतिव्रताओं में शिरोमणि थी। अभिमान तो उसे कभी छू भी न सकता था। समयानुसार दमयन्ती के गर्भ से एक पुत्र और एक कन्या का जन्म हुआ। दोनों बच्चे माता-पिता के अनुरूप ही सुन्दर रूप और गुणसे सम्पन्न थे। वैसे तो महाराज नल गुणवान्, धर्मात्मा तथा पुण्यश्लोक थे, किन्तु उनमें एक दोष था —जुए का व्यसन। और उनकी एक गलती ने कलियुग को मौका दे दिया। कलियुग नल के शरीर में प्रवेश कर गए और द्वापर जुए के पाए में। 

नल के भाई पुष्कर ने नल को जुए के लिए आमन्त्रित किया। कलियुग के वश में नल ने जुए का आमंत्रण स्वीकार कर लिया। खेल आरम्भ हुआ। भाग्य प्रतिकूल था क्योकि पासे में द्वापर विराजमान थे। नल हारने लगे, सोना, चाँदी, रथ, राजपाट सब हाथ से निकल गया। महारानी दमयन्ती ने प्रतिकूल समय जानकर अपने दोनों बच्चों को विदर्भ देश भेज दिया।

इधर नल जुए में अपना सर्वस्व हार गये। उन्होंने अपने शरीर के सारे वस्त्राभूषण उतार दिये। केवल एक वस्त्र पहनकर नगर से बाहर निकले। दमयन्ती ने भी मात्र एक साड़ी में पति का अनुसरण किया। एक दिन राजा नल ने सोने के पंख वाले कुछ पक्षी देखे। राजा नल ने सोचा, यदि इन्हें पकड़ लिया जाय तो इनको बेचकर निर्वाह करने के लिए कुछ धन कमाया जा सकता है। ऐसा विचारकर उन्होंने अपने पहनने का वस्त्र खोलकर पक्षियों पर जाल की तरह फेंका। पक्षी वह वस्त्र लेकर उड़ गये। अब राजा नल के पास तन ढकने के लिए भी कोई वस्त्र न रह गया। नल अपनी अपेक्षा दमयन्ती के दुःख से अधिक व्याकुल थे। एक दिन दोनों जंगल में एक वृक्ष के नीचे एक ही वस्त्र से तन छिपाये पड़े थे। दमयन्ती को थकावट के कारण नींद आ गयी। राजा नल ने सोचा, दमयन्ती को मेरे कारण बड़ा दुःख सहन करना पड़ रहा है। यदि मैं इसे इसी अवस्था में यहीं छोड़कर चला जाऊँ तो दमयंती किसी तरह अपने पिताके पास पहुँच जायगी। यह विचारकर उन्होंने तलवार से दमयंती की आधी साड़ी काट ली और उसी से अपना तन ढककर, दमयन्ती को उसी अवस्था में छोड़ कर वे चल दिये। 

राजा नल को सफर के दौरान चिल्लाने की आवाज़ आयी। राजा नल आवाज़ कि दिशा में बढ़े तो उन्हें अग्नि के बीच में नागराज कर्कोटक सर्प दखाई दिया। राजा नल ने नागराज कर्कोटक को अग्नि से बचाया। जिसके बाद नागराज कर्कोटक ने उन्हें डस लिया। नागराज कर्कोटक के डस से व्याकुल होकर कलियुग ने राजा नल का शरीर छोड़ दिया। परन्तु नागराज कर्कोटक के डस से राजा नल भी कुरूप हो गये। 

उधर जब दमयन्ती की नींद टूटी तो बेचारी अपने को अकेला पाकर करुण विलाप करने लगी। भूख और प्यास से व्याकुल होकर वह अचानक अजगर के पास चली गयी और अजगर उसे निगलने लगा। दमयन्ती की चीख सुनकर एक व्याध ने उसे अजगर का ग्रास होने से बचाया। किंतु व्याध स्वभाव से दुष्ट था। उसने दमयन्ती के सौन्दर्य पर मुग्ध होकर उसे अपनी कामवासना का शिकार बनाना चाहा। दमयन्ती उसे श्राप देते हुए बोली- यदि मैंने अपने पति राजा नल को छोड़कर किसी अन्य पुरुष का कभी चिन्तन न किया हो तो इस पापी व्याध के जीवन का अभी अन्त हो जाय। दमयन्ती की बात पूरी होते ही व्याध मृत्यु को प्राप्त हुआ।

इसके बाद दमयंती राजा नल की तलाश में पर्वत और जंगल तलाश ढाले पर दमयंती राजा नल को नहीं खोज पायी। दैवयोग से भटकते हुए दमयन्ती एक दिन चेदिनरेश सुबाहु के राज्य में पहुंच गयी जहाँ वह राजमाता की सेवा में लग गयी। विदर्भ देश के राजा भीम की आज्ञा से  ब्राह्माण लोग नल दमयंती की तलाश में निकल गए। सुदेव नामक ब्राह्मण ने दमयंती को चेदिनरेश सुबाहु के महल में देखा और दमयंती को उनके पिता के राज्य विदर्भ देश ले आये। जहाँ दमयंती ने अपनी माँ से राजा नल के तलाश की बात की। 

उधर राजा नल कलियुग के प्रभाव से मुक्त होकर कुरूप रूप में अयोध्या नगरी पहुंचे और वहाँ पर वो अस्तबल में काम करने लगे। जहा पर उन्होंने राजा से पासे के दाव सीखें तथा राजा को अश्वधावक की विद्या सिखायी। जब दमयंती को राजा नल के अयोध्या में होने का पता चला तो उन्होंने अयोध्या में अपने स्वयंवर  की बात फैला दी और ये शर्त रखी की स्वयंवर में हिस्सा लेने वालो को एक दिन में घोड़ों के रथ से सौ योजन की यात्रा करके विदर्भ देश में आना होगा। राजा नल रानी दमयंती के स्वयंवर की बात सुनकर विचलित हो गए। 

अयोध्या नरेश ने स्वयंवर में हिस्सा लेने के लिए सबसे सामर्थ्य नल को अपना सारथी बनाया। जब अयोध्या नरेश का रथ विदर्भ देश के किले के पास पंहुचा तो रथ दौड़ने की ध्वनि से दमयंती समझ गयी की ऐसा रथ सिर्फ नल चला सकते है। किन्तु महल के अंदर अपने पति नल को ना पाकर रानी दमयंती ने अपनी दासी को रथ के सारथी के पास भेजा। दासी ने रानी दमयंती की आधी कहानी कुरूप सारथी को सुनाकर उनसे एक सवाल पुछा। जिसका जवाब सारथी ने रोते हुये दिया। जवाब पाने के बाद दासी ने जब वो जवाब दमयंती को सुनाया तो दमयंती समझ गयी की वो कुरूप सारथी ही राजा नल है। 

इसके बाद रानी दमयंती ने अपने बच्चो को दासी के साथ सारथी के पास भेजा। बच्चो को देख कर राजा नल खुद को रोक ना पाये और अपने बच्चो को गले लगाकर रोने लगे। इसके बाद सारथी ने बच्चो को दासी को सौप दिया और बोला इन बच्चो में उसे अपने बच्चे की झलक मिली इसलिए उसने ऐसा किया।  दासी ने लौटकर सारा किस्सा दमयंती को सुनाया, जिसके बाद दमयंती ने उस सारथी को अपने कक्ष में बुलाया। 

सारथी जब दमयंती के कक्ष में गये, तब दमयंती ने कहा- सारथी! पहले एक धर्मज्ञ पुरुष अपनी पत्नी को वन में सोता छोड़कर चला गया था । क्या कहीं तुमने उसे देखा है? उस समय वह स्त्री थकी माँदी थी, नींद से अचेत थी; ऐसी निरपराध स्त्री को पुण्यश्लोक निषाद नरेश के सिवा और कौन पुरुष निर्जन वन में छोड़ सकता है? मैंने जीवन में कभी भी जानबूझकर कोई भी अपराध नहीं किया है। फिर भी वे मुझे वन में सोता छोड़कर चले गये। इतना कहते कहते दमयन्ती के नेत्रों में आँसू आ गये। दमयंती के विशाल नेत्रों से आँसू टपकते देखकर नल से रहा न गया। वे कहने लगे- प्रिये! मैंने जानबूझकर ना तो राज्य का नाश किया है और ना ही तुम्हें त्यागा है। यह सब कलियुग की वजह से हुआ। मैं जानता हूँ कि जबसे तुम मुझसे बिछुड़ी हो, तबसे रातदिन मेरा ही स्मरण और चिन्तन करती रहती हो। कलियुग मेरे शरीर में रहकर तुम्हारे शापके कारण जलता रहता था। कलियुग अब मुझे छोड़कर चला गया , मैं एकमात्र तुम्हारे लिये ही यहाँ आया हूँ। पर यह तो बतलाओ कि तुम मेरे जैसे अनुकूल पति को छोड़कर किस प्रकार दूसरे से विवाह करने के लिये तैयार हो गयी? क्या कोई दूसरी स्त्री ऐसा कर सकती है? तुम्हारे स्वयंवर का समाचार सुनकर ही तो राजा ऋतुपर्ण बड़ी शीघ्रता के साथ यहाँ आये हैं और उन्ही के साथ में भी यहाँ आया।

दमयंती ने हाथ जोड़कर कहा- आर्यपुत्र! मुझपर दोष लगाना उचित नहीं है। आप जानते हैं कि मैंने अपने सामने प्रकट देवताओं को छोड़कर आपको वरण किया था। मैंने आपको ढूँढ़ने के लिये बहुत से ब्राह्मणों को भेजा था और वे मेरी कही बात दुहराते हुए चारों ओर घूम रहे थे। उनमे से एक ब्राह्मण अयोध्यापुरी में आपके पास भी पहुंचा था। उसने आपको मेरी बातें सुनायी थीं और आपने उनका यथोचित उत्तर भी दिया था। वह समाचार सुनकर मैंने आपको बुलाने के लिये ही यह युक्ति की थी। मैं जानती हूँ कि आपके अतिरिक्त दूसरा कोई मनुष्य नहीं है, जो एक दिन में घोड़ों के रथ से सौ योजन पहुँच जाय। मैं आपके चरणों में स्पर्श करके सत्य सत्य कहती हूँ कि मैंने कभी मन से भी दूसरे पुरुष का चिन्तन नहीं किया है। यदि मैंने कभी मनसे भी पाप कर्म किया हो तो देवता गण मेरे प्राणों का नाश कर दें। फिर देवताओं ने राजा नल को दर्शन देकर कहा- राजन। हम सत्य कहते है कि दमयन्ती ने कोई पाप नहीं किया है। हम लोग स्वयं दमयंती की रक्षा कर रहे थे और इसकी पवित्रता के साक्षी हैं। इसने स्वयंवर की सूचना तो तुम्हें ढूँढ़ने के लिये ही दी थी। वास्तव में दमयन्ती तुम्हारे योग्य है और तुम दमयन्ती के योग्य हो। बिना किसी शंका के दमयंती को स्वीकार करो।  

इसके बाद देवताओं के आशीर्वाद से नल अपने रूप में आ गये। कुछ समय पश्चात राजा नल एक छोटी सी सेना लेकर निषाद देश की और रवाना हो गए। जहाँ पर उन्होंने अपने भाई को रणभूमि में युद्ध का या जुआ खेलने का प्रस्ताव दिया। राजा नल के भाई ने जूआ खेलने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। 

राजा नल ने अयोध्या नरेश से सीखी हुयी पासे की विद्या का इस्तेमाल कर वो सब प्राप्त कर लिया जो वो कुछ समय पहले जूआ खेलकर हार गए थे। 

अंततः दमयन्ती के सतीत्व के प्रभाव से एक दिन महाराज नल के दुःखो का भी अन्त हुआ। दोनों का पुनर्मिलन हुआ और राजा नल को उनका राज्य भी वापस मिल गया।


कथा समाप्ति के बाद बृहदश्वजी युधिष्ठिर से बोले- युधिष्ठिर! तुम्हें भी थोड़े ही दिनों में तुम्हारा राज्य मिल जायेंगा। राजा नल ने जूआ खेलकर बड़ा भारी दुःख मोल ले लिया था। उसे अकेले ही सब दुःख भोगना पड़ा, परंतु तुम्हारे साथ तो तुम्हारे भाई हैं, द्रौपदी है। ऐसी दशा में शोक करने का तो कोई कारण ही नहीं है। संसार की स्थितियाँ सर्वदा एक सी नहीं रहतीं। 

इतना सुनकर युधिष्ठिर को एहसास हुआ की अभी भी उनके पा परिवार के रूप में सब कुछ है। जिसके दमपर वो किसी भी मुश्किल पर विजय प्राप्त कर सकते है।  

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