शनिदेव के जनम की कथा
भगवान सूर्यदेव का विवाह राजा दक्ष की कन्या संज्ञा के साथ हुआ।
भगवान सूर्यदेव+ संज्ञा --> वैस्वत मनु और यमराज(पुत्र), यमुना(पुत्री)
संज्ञा भगवान सूर्यदेव के अत्यधिक तेज और तप सहन नहीं कर पाती थी। सूर्यदेव के तेजस्विता के कारण वह बहुत परेशान रहती थी। इसके लिए संज्ञा ने निश्चय किया कि उन्हें तपस्या से अपने तेज को बढ़ाना होगा और तपोबल से भगवान सूर्यदेव की अग्नि को कम करना होगा। इसके लिए संज्ञा ने सोचा कि किसी एकांत जगह पर जाकर घोर तपस्या करनी होगा। संज्ञा ने अपने तपोबल और शक्ति से अपने ही जैसी दिखने वाली छाया को उत्पन्न किया। जिसका नाम सुवर्णा रखा।
इसके बाद संज्ञा ने छाया सुवर्णा को अपने बच्चों की जिम्मेदारी सौंपा और फिर तपस्या के लिए घने जंगल में शरण ले लिया। कुछ दिन बाद भगवान सूर्यदेव औऱ छाया सुवर्णा के मिलन से तीन बच्चों जन्म हुआ।
भगवान सूर्यदेव+ सुवर्णा --> मनु और शनिदेव(पुत्र), भद्रा(पुत्री)
नवग्रहों के स्वामी/न्याय के स्वामी
एक बार भगवान सूर्यदेव पत्नी सुवर्णा से मिलने आए। सूर्यदेव के तप और तेज के कारण शनिदेव महाराज ने अपनी आंखें बंद कर ली और वह उन्हें देख नहीं पाए। भगवान शनि के वर्ण को देख सूर्यदेव ने पत्नी छाया पर संदेह व्यक्त किया औऱ कहा कि यह मेरा पुत्र नहीं हो सकता। इसके चलते शनिदेव के मन में सूर्य के प्रति शत्रुवत भाव पैदा हो गया। इसके बाद शनिदेव महाराज ने भगवान शिव की कठोर तपस्या की। भगवान शिव शनिदेव की तपस्या से प्रसन्न होकर वरदान मांगने को कहा, जिस पर शनिदेव ने भगवान शिव से कहा कि सूर्यदेव के संदेह की वजह से उनकी माता को हमेशा अपमानित होना पड़ता है। उन्होंने सूर्य से अधिक शक्तिशाली और पूज्यनीय होने का वरदान मांगा। इस पर भगवान शिव ने शनिदेव को वरदान दिया कि वह नौ ग्रहों के स्वामी होंगे तथा उन्हें न्याय का देवता बना दिया। न्याय के देवता होने के कारण सिर्फ मानव जाति ही नहीं बल्कि देवता, असुर, गंधर्व, नाग और जगत का हर प्रांणि उनसे भय खाता है।
पत्नी का श्राप
भगवान् शिवा के अलावा बाल्यकाल से ही शनिदेव भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त थे। वे भगवान श्रीकृष्ण के अनुराग में निमग्न रहा करते थे। युवावस्था में उनका विवाह चित्ररथ की कन्या से हो गया था। उनकी पत्नी सती, साध्वी एवं परम तेजस्विनी थी। एक रात्रि वह ऋतु स्नान कर पुत्र प्राप्ति की इच्छा लिए शनिदेव के पास पहुंची, पर शनिदेव तो भगवान श्रीकृष्ण के ध्यान में लीन थे। उन्हें बाह्य संसार की कोई सुधि ही नहीं थी। उनकी पत्नी प्रतीक्षा करके थक गई। उनका ऋतकाल निष्फल हो गया। इसलिए उन्होंने क्रुद्ध होकर शनिदेव को श्राप दे दिया कि आज से जिसे तुम देखोगे, वह नष्ट हो जाएगा।
(कृष्ण शनिदेव के इष्ट गुरु है इसलिए शनिदेव की कृष्ण भक्तो पर कृपा दृष्टि बानी रहती है। )
रावण कैद
रावण अपने तप से सभी देवतओं से ज्यादा शक्तिशाली हो गया। जब न्याय के देवता शनिदेव के न्याय से रावण के काम बिगड़ने लगे तो उसने शनिदेव को बंदी बना लिया। हनुमान जी के लका दहन के दौरान शनिदेव को रावण की कैद से मुक्ति मिली।
शनिदेव- भगवान शिव, कृष्ण तथा हनुमान की पूजा से भी प्रसन होते है।
पसंदीदा वस्तु- काला कपड़ा, काला धागा, काला चना, लाल चन्दन, सरसो का तेल, शमी का वृक्ष
शनि मंत्र
ॐ शं शनैश्चराय नमः।
शनिदेव व्रत कथा
जब राजा विक्रमादित्य को नवग्रहों के अपने दरबार में आने का पता चला तो उसने सोच विचार के बाद नौ धातु स्वर्ण, रजत, कांस्य, पीतल, सीसा, रांगा, जस्ता, अभ्रक और लौह से सिंहासन बनवाया और उनको क्रम से रख दिया। नवग्रहों के आने पर विक्रमादित्य ने सभी ग्रहों से इस पर बैठने को कहा, साथ में ये भी कहा कि जो सबसे बाद में बैठेगा, वह सबसे छोटा ग्रह होगा। लोहे का सिंहासन सबसे अंत में था, जिस वजह से शनि देव सबसे अंत में बैठे। इस वजह से शनिदेव नाराज हो गए।
क्रुद्व शनिदेव ने राजा विक्रमादित्य से कहा कि जब शनि की दशा आती है तो वह ढाई से सात साल तक होती है। शनि की दशा आने से बड़े से बड़े व्यक्ति का विनाश हो जाता है। अब तुम सावधान रहना। (शनि की साढ़ेसाती आयी तो राम को वनवास हुआ और रावण पर शनि की महादशा आई तो उसका सर्वनाश हो गया)
कुछ समय बाद राजा विक्रमादित्य पर शनि की महादशा शुरू हो गई। तब शनि देव घोड़ों का व्यापारी बनकर उनके राज्य में आए। राजा विक्रमादित्य को पता चला कि एक सौदागर अच्छे घोड़े लेकर आया है, तब विक्रमादित्य ने घोड़े खरीदने का आदेश दिया। एक दिन राजा विक्रमादित्य उनमें से एक घोड़े पर बैठे, तो वो उनको लेकर जंगल में भाग गया और गायब हो गया।
राजा विक्रमादित्य का बुरा वक्त शुरु हो चुका था। वो भूख प्यास से वे तड़पने लगे, तब एक ग्वाले ने उन्हें पानी पिलाया, तो राजा ने उसे अपनी अंगूठी दे दी। फिर राजा विक्रमादित्य पास के नगर की ओर चल दिए। एक सेठ के यहां रूककर पानी पिया और उसे अपना परिचय उज्जैन के वीका के रूप में दिया। सेठ वीका को लेकर घर गया। वहां उसने देखा कि एक खूंटी पर हार टंगा है और खूंटी उसे निगल रही है। देखते ही देखते हार गायब हो गया। हार चुराने का आरोप में सेठ ने वीका पर लगाया।
विका को वहाँ के राजा के सामने प्रस्तुत किया गया। वहां के राजा ने वीका के हाथ-पैर कटवा दिया और नगर के बाहर छोड़ने का आदेश दिया। नगर के बहार से एक तेली गुजर रहा था, वीका को देखकर उसे विका पर दया आ गयी। उसने विका को बैलगाड़ी में बैठाया और आगे चल दिया।
कुछ समय पश्चात शनि की महादशा समाप्त हो गयी। वीका दूसरे राज्य में पहुंच गया था। वर्षा ऋतु में मीका मल्हार गा रहा था, उस राज्य की राजकुमारी मनभावनी ने उसकी आवाज सुनी, तो विका से विवाह करने की जिद पर अड़ गयी। हारकर राजा ने बेटी की विवाह वीका से कर दिया।
एक रात शनि देव ने वीका को स्वप्न में दर्शन दिए और कहा कि तुमने मुझे छोटा कहने का परिणाम देख लिया। तब राजा विक्रमादित्य ने शनि देव से क्षमा मांगी और कहा कि उनके जैसा दुख किसी को न दें। तब शनि देव ने कहा कि जो उनकी कथा का श्रवण करेगा और व्रत रहेगा, उसे शनि दशा में कोई दुख नहीं होगा। शनि देव ने राजा विक्रमादित्य के हाथ और पैर वापस कर दिए।
फिर उस सुबह राजा विक्रमादित्य ने अपनी पत्नी मनभावनी को बताया की वो दूर देश के राजा विक्रमादित्य है।
जब उस सेठ को जिसने विका पर चोरी का आरोप लगाया था, इस बात का पता चला कि विका ही राजा विक्रमादित्य हैं, तो उसने विक्रमादित्य से माफ़ी मांगकर उन्हें अपने घर आमंत्रित किया। सेठ ने अपने घर पर विक्रमदित्य का आदर सत्कार किया और अपनी बेटी श्रीकंवरी से उनका विवाह कर दिया। इसके बाद राजा विक्रमादित्य अपनी दो पत्नियों मनभावनी एवं श्रीकंवरी के साथ अपने राज्य लौट आए, जहां पर उनका स्वागत किया गया। राजा विक्रमादित्य ने कहा कि उन्होंने शनि देव को छोटा बताया था, लेकिन वे तो सर्वश्रेष्ठ हैं। तब से राजा विक्रमादित्य के राज्य में शनि देव की पूजा और कथा रोज होने लगी।
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