बृहस्पति मंत्र
ॐ ग्रां ग्रीं ग्रौं सः गुरुवे नमः!
ॐ बृं बृहस्पतये नमः!
पीला रंग, स्वर्ण धातु, पीला रत्न पुखराज एवं पीला नीलम, शीत ऋतु, पूर्व दिशा, अंतरिक्ष एवं आकाश तत्त्व बृहस्पति को प्रिय है।
बृहस्पति एवं शुक्र देव
बृहस्पति अंगऋषि के पुत्र है। इनकी शिक्षा दीक्षा इनके पिता अंगऋषि के आश्रम में हुयी थी। अंगऋषि के आश्रम में बृहस्पति एव शुक्राचार्य(शुक्र देव) ने साथ में शिक्षा ग्रहण की। ऋषि शुक्राचार्य के श्रेष्ठ होने के बाद भी ज्यादा सम्मान ऋषि बृहस्पति को मिलता था।
इस बात पर ऋषि शुक्राचार्य ने अंगऋषि का आश्रम छोड़ दिया तथा बाकी की शिक्षा सनकऋषि और गौतम ऋषि से ली। जब बृहस्पति को देवताओं ने गुरु बनाया तब शुक्राचार्य ने दैत्यों को अपना शिष्य बना लिया।
बृहस्पति एवं चंद्र देव
ऋषि बृहस्पति से बहुत से देवताओं ने शिक्षा ली। चंद्र देव भी शिक्षा प्राप्ति के उद्देश्य से ऋषि बृहस्पति को अपना गुरु बनाया। बृहस्पति की पत्नी तारा चंद्र देव की सुंदरता पर मोहित होकर उनसे प्रेम करने लगी। तदोपरांत वह चंद्रमा के संग सहवास भी कर गई एवं बृहस्पति को छोड़ ही दिया। बृहस्पति के वापस बुलाने पर तारा ने वापस आने से मना कर दिया, जिससे बृहस्पति क्रोधित हो उठे। तब बृहस्पति एवं उनके शिष्य चंद्र के बीच युद्ध आरंभ हो गया। इस युद्ध में असुरो के गुरु शुक्राचार्य चंद्रमा की ओर हो गये और अन्य देवता बृहस्पति के साथ हो लिये। धीरे धीरे युद्ध बड़े स्तर पर होने लगा। क्योंकि यह युद्ध तारा की कामना से हुआ था, अतः यह तारकाम्यम कहलाया। देवताओं के इस युद्ध से सृष्टिकर्त्ता ब्रह्मा को भय हुआ कि ये कहीं पूरी सृष्टि ही तबाह ना हो जाए, तो वे बीच बचाव कर इस युद्ध को रुकवाने का प्रयोजन करने लगे। उन्होंने तारा को समझा-बुझा कर चंद्र से वापस लिया और बृहस्पति को सौंप दिया। इसके बाद तारा ने एक सुंदर पुत्र को जन्म दिया जो बुध कहलाये।
अतः बृहस्पति का चंद्र और शुक्र से शत्रु भाव है।
बृहस्पति व्रत कथा
प्राचीन समय की बात है – एक धनवान व्यक्ति था, जो प्रत्येक गुरुवार को व्रत रखता एवं पूजा करता था ।
यह उनकी पत्नी को अच्छा नहीं लगता था। उनकी पत्नी ना तो व्रत करती और ना ही किसी को एक पैसा दान में देती। और वह अपने पति को भी ऐसा करने से मना किया करती। एक बार जब वह व्यक्ति घर से बाहर गया था। उस समय गुरु वृहस्पति साधु का रुप धारण कर उनके दर पर भिक्षा मांगने आए। साधु ने जब उनकी पत्नी से भिक्षा मांगी तो वह कहने लगी, हे साधु महाराज! मैं इस दान और पुण्य से तंग आ गई हूँ। आप कोई ऐसा उपाय बताएं, जिससे यह सारा धन नष्ट हो जाये और मैं आराम से रह सकूं।
साधु रुपी वृहस्पति देव ने कहा, हे देवी! संतान और धन से भी कोई दुखी होता है?
अगर तुम्हारे पास धन अधिक है तो इसे शुभ कार्यों में लगाओ, जिससे तुम्हारे कर्मो का उद्धार हो।
परन्तु साधु की इन बातों से वो खुश नहीं हुई। उन्होंने कहा, मुझे ऐसे धन की आवश्यकता नहीं, जिसे मैं दान दूं तथा जिसको संभालने में ही मेरा सारा समय नष्ट हो जाये।
साधु ने कहा, यदि तुम्हारी ऐसी इच्छा है तो वैसा ही होगा। यह कहकर साधु बने वृहस्पतिदेव अंतर्धान हो गये।
साधु के कहे अनुसार केवल तीन वृहस्पतिवार ही बीते थे कि उसकी समस्त धन-संपत्ति नष्ट हो गई । परिवार भोजन के लिये तरसने लगा। परिवार की हालत देखकर पति ने पत्नी से दूसरे देश जा कर काम करने की इच्छा व्यक्त की। जिससे वो परिवार के लिए कुछ पैसे कमा सके। इसके उपरान्त वह दूसरे देश में जा कर लकड़हारे का काम करने लगे। वहां वह जंगल से लकड़ी काटकर शहर में बेचने लगा। इस तरह वह अपना जीवन व्यतीत करने लगा।
वही उनके अपने शहर में, उनकी पत्नी और पत्नी की दासी गरीबी से परेशान रहने लगीं। एक समय जब उनकी पत्नी और दासी को सात दिन बिना भोजन के रहना पड़ा, तो उनकी पत्नी ने अपनी दासी से कहा, हे दासी! पास ही के नगर में मेरी बहन रहती है। वह बड़ी धनवान है। तू उसके पास जा और कुछ ले आ ताकि थोड़ा-बहुत गुजर-बसर हो जाए।
दासी जिस दिन मालिकिन के बहन के पास गई, उस दिन वृहस्पतिवार था। मालिकिन की बहन उस समय वृहस्पतिवार की कथा सुन रही थी। दासी ने मालिकिन की बहन को संदेश दिया, लेकिन दासी को कोई उत्तर नहीं मिला। दासी को क्रोध आया और उसने वापस आकर मालिकिन को सारी बात बता दी। दासी की बात सुनकर मालकिन को दुःख हुआ।
उधर, मालकिन की बहन ने सोचा कि मेरी बहन की दासी आई थी, परन्तु मैं उससे नहीं बोली, इससे वह बहुत दुखी हुई होगी। बृहस्पति कथा सुनकर और पूजन समाप्त कर वह अपनी बहन के घर गई और कहने लगी, हे बहन! मैं बृहस्पतिवार का व्रत कर रही थी। तुम्हारी दासी आयी थी, परन्तु उस समय कथा हो रही थी, जिस वजह से मैं नहीं बोली। कहो बहन क्या बात हो गयी। फिर उन्होंने अपनी बहन को सारा हाल बताया।
बहन बोली- बृहस्पति भगवान सबकी मनोकामना पूर्ण करते है। देखो, शायद तुम्हारे घर में अनाज रखा हो। यह सुनकर दासी घर के अन्दर गई और वहाँ उसे एक घड़ा अनाज का भरा मिल गया । उसे बड़ी हैरानी हुई क्योंकि उसने पहले ही हर एक बर्तन देख लिया था। उसने बाहर आकर मालकिन को ये बात बतायी। बृहस्पति देव की महिमा देख कर मालिकिन ने बृहस्पति व्रत करने की ठानी।
वह हर बृहस्पतिवार के व्रत में चने की दाल और मुनक्का केले की जड़ को अर्पित कर तथा दीपक जला कर भगवान् विष्णु का पूजन करने लगी।
बृहस्पति भगवान की कृपा से उनके पास धन आ गया और वह शुभ कर्म करने लगी।
उन्होंने अपने पति का चिंतन कर श्रद्धापूर्वक बृहस्पति भगवान से अपने पति के घर लौटने की कामना की।
उधर, परदेश में उनके पति की स्तिथि बहुत खराब थी। वह प्रतिदिन जंगल से लकड़ी बीनकर और उसे शहर में बेचकर, अपना जीवन बड़ी कठिनता से व्यतीत कर रहे थे। एक दिन वह उदास होकर रोने लगे।
उसी समय उनके पास एक साधु आकर बोले, हे लकड़हारे! तुम इस सुनसान जंगल में किस चिंता में बैठे हो, मुझे बतलाओ। यह सुन उनके नेत्र भर आये। उन्होंने साधु को अपनी कहानी बता दी। साधू बोले, हे लकड़हारे! तुम्हारी पत्नी ने धन का अनादर किया, जिसके कारण तुम्हारी यह दशा हुई। लेकिन अब तुम चिन्ता मत करो। भगवान तुम्हें पहले से अधिक धन देंगें। साधू ने लकड़हारे को भी बृहस्पतिवार का व्रत रखने की सलाह दी और कथा सुनाया जो नीचे लिखी है।
प्राचीन काल में एक ब्राह्मण रहता था, वह बहुत निर्धन था। उसके कोई सन्तान नहीं थी। उसकी स्त्री बहुत मलीनता के साथ रहती थी। वो ना ही स्नान करती, ना ही किसी देवता का पूजन करती, इससे ब्राह्मण बड़े दुःखी थे। बेचारे बहुत कुछ कहते थे, किन्तु उसका कुछ परिणाम न निकला। भगवान की कृपा से ब्राह्मण की पत्नी को कन्या पैदा हुआ। कन्या बड़ी होने पर प्रातः स्नान करके विष्णु भगवान का जाप व बृहस्पतिवार का व्रत करने लगी। वह अपने पूजन-पाठ को समाप्त करके विद्यालय जाती तो अपनी मुट्ठी में जौ भरके ले जाती और पाठशाला के मार्ग में डालती जाती। और लौटते समय यही जौ स्वर्ण में बदल जाते, जिसे वो कन्या बीन कर घर ले आती थी।
एक दिन वह बालिका सूप में सोने के जौ को फटककर साफ कर रही थी कि उसके पिता ने देख लिया और कहा - हे बेटी! सोने के जौ के लिए सोने का सूप होना चाहिए। दूसरे दिन बृहस्पतिवार था। कन्या ने बृहस्पतिवार का व्रत रखा और बृहस्पतिदेव से प्रार्थना करके कहा- मैंने आपकी पूजा सच्चे मन से की हो तो मेरे लिए सोने का सूप दे दो। बृहस्पतिदेव ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। रोजाना की तरह वह कन्या जौ फैलाती हुई जाने लगी जब लौटकर जौ बीन रही थी तो बृहस्पतिदेव की कृपा से सोने का सूप मिला। उसे वह घर ले आई और उसमें जौ साफ करने लगी। परन्तु उसकी मां का वही ढंग रहा। एक दिन की बात है कि वह कन्या सोने के सूप में जौ साफ कर रही थी। उस समय उस शहर का राजकुमार वहां से होकर निकला। राजकुमार कन्या के रूप और कार्य को देखकर मोहित हो गया तथा अपने घर आकर भोजन इत्यादि त्याग कर उदास होकर लेट गया। राजा को इस बात का पता लगा तो अपने प्रधानमंत्री के साथ उसके पास गए और बोले- हे बेटा तुम्हें किस बात का कष्ट है? किसी ने अपमान किया है अथवा और कारण हो तो मुझसे कहो। मैं वही कार्य करूंगा जिससे तुम्हें प्रसन्नता हो। राजकुमार ने अपने पिता से उस कन्या का जिक्र कर शादी की इच्छा व्यक्त की। राजा ने ब्राह्माण से उसकी पुत्री का हाँथ अपने पुत्र के लिए माँगा। ब्राह्मण राजकुमार के साथ अपनी पुत्री का विवाह करने के लिए तैयार हो गए। विधि-विधान के अनुसार ब्राह्मण की कन्या का विवाह राजकुमार के साथ हो गया।
पुत्री के घर से जाते ही पहले की भांति उस ब्राह्मण के घर में गरीबी का निवास हो गया। अब भोजन के लिए भी अन्न बड़ी मुश्किल से मिलता था। एक दिन दुःखी होकर ब्राह्मण अपनी पुत्री के पास गए। बेटी ने पिता की दुःखी अवस्था को देखा और अपनी मां का हाल पूछा। तब ब्राह्मण ने सभी हाल कहा। पुत्री ने बहुत सा धन देकर अपने पिता को विदा कर दिया। इस तरह ब्राह्मण का कुछ समय सुखपूर्वक व्यतीत हुआ। कुछ दिन बाद फिर वही हाल हो गया। ब्राह्मण फिर अपनी पुत्री के यहां गया और सारा हाल कहा तो पुत्री बोली- हे पिताजी! आप माताजी को यहां लाओ। मैं उसे विधि बता दूंगी जिससे गरीबी दूर हो जाए। वह ब्राह्मण देवता अपनी स्त्री को साथ लेकर पहुंचे तो अपनी मां को समझाने लगी- हे मां तुम प्रातः काल प्रथम स्नानादि करके विष्णु भगवान का पूजन करो तो सब दरिद्रता दूर हो जायेगी। परन्तु उसकी माँ ने एक भी बात नहीं मानी और प्रातः काल उठकर अपनी पुत्री के बच्चों की जूठन को खा लिया। इससे उसकी पुत्री को भी बहुत गुस्सा आया और एक रात को कोठरी से सभी सामान निकाल दिया और अपनी मां को उसमें बंद कर दिया। प्रातःकाल उसे निकाला तथा स्नानादि कराकर पाठ करवाया तो उसकी मां की बुद्धि ठीक हो गई और फिर वो प्रत्येक बृहस्पतिवार को व्रत रखने लगी। इस व्रत के प्रभाव से उसके मां बाप बहुत ही धनवान और पुत्रवान हो गए।
इस तरह साधु उस व्यक्ति से कहानी कहकर वहाँ से चले गये।
धीरे-धीरे समय व्यतीत होने पर फिर बृहस्पतिवार का दिन आया। रोजाना की तरह वह व्यक्ति जंगल से लकड़ी काटकर शहर में बेचने गया। पर उस दिन उसे बाकी दिनों की अपेक्षा अधिक धन मिला। उसने चना, गुड़ आदि लाकर बृहस्पतिवार का व्रत किया। उस दिन से उसके सभी क्लेश दूर हुए। और कुछ वक़्त के बाद लकड़हारा वापस अपने देश आ गया।
Comments
Post a Comment