देवी वृंदा भगवान विष्णु की अनन्य भक्त थी। उनका विवाह जलंधर नामक राक्षस से हुआ था। सभी उस राक्षस के अत्याचारों से त्रस्त आ गए थे। जब देवों और जलंधर के बीच युद्ध हुआ तो वृंदा अपने पति की रक्षा हेतु अनुष्ठान करने बैठ गई और संकल्प लिया कि जब तक उनके पति युद्ध से वापस नहीं आ जाते अनुष्ठान नहीं छोड़ेंगी। देवी वृंदा के सतीत्व के कारण जलंधर को मारना असंभव हो गया था।
त्रस्त होकर सभी देव गण विष्णु जी के पास गए और उनसे सहायता मांगी। इसके बाद विष्णु जी जलंधर का रुप धारण करके वृंदा के समक्ष गए। नारायण को अपना पति समझकर वृंदा पूजा से उठ गई और उसका व्रत टूट गया। परिणाम स्वरुप युद्ध में जलंधर की मृत्यु हो गई और जलंधर का सिर महल में जाकर गिरा। यह देख वृंदा ने कहा कि जब मेरे स्वामी की मृत्यु हो गई है, तो फिर मेरे समक्ष कौन है। इसके बाद विष्णु जी अपने वास्तविक रूप में आ गए।जब वृंदा को सारी बात ज्ञात हुई तो उन्होंने विष्णु जी से कहा कि- हे नारायण मैंने जीवन भर आपकी भक्ति की है, फिर आपने मेरे साथ ऐसा छल क्यों किया?
विष्णु जी के पास वृंदा के प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं था। वे चुपचाप खड़े होकर सुनते रहे और वृंदा की बात का कोई उत्तर नहीं दिया। उत्तर प्राप्त न होने पर वृंदा ने क्रोधित होकर कहा कि आपने मेरे साथ इतना बड़ा छल किया है, फिर भी आप पत्थर की भांति चुप खड़े हैं। जिस प्रकार आप पत्थर की तरह व्यवहार कर रहे हैं, आप भी पत्थर के हो जाएं।
वृंदा के द्वारा दिए गए श्राप के कारण भगवान विष्णु शालिग्राम पत्थर में बदल गए। जिससे सृष्टि का संतुलन बिगड़ने लगा। तब सभी देवों ने वृंदा से प्रार्थना की और देवताओं की प्रार्थना को स्वीकार करते हुए वृंदा ने भगवान विष्णु को क्षमा कर दिया और अपने पति के सिर को लेकर सती हो गई। उनकी राख से एक पौधा उत्पन्न हुआ तो तुलसी कहलाया।
भगवान विष्णु ने वृंदा के पति का रूप छला था, जिसके कारण श्राप ग्रस्त होकर भगवान विष्णु शालिग्राम पत्थर में बदल गए थे। जब देवताओं ने शालिग्राम स्वरूप विष्णु का तुलसी स्वरूप वृंदा से विवाह कराया, तब भगवान विष्णु को श्राप से मुक्ति मिली। और तब से शालिग्राम को भगवान विष्णु का अंश माना जाता है और हर साल देव उठनी एकादशी के दिन तुलसी विवाह पूजा की जाती है, जिसमे तुलसी जी का विवाह हर्षोल्लास के साथ शालिग्राम से किया जाता है।
यही कारण है की विष्णु जी की पूजा तुलसी दल के बिना अधूरी मानी जाती है ।
शयनी एकादशी के दिन भगवान विष्णु क्षीर सागर में निद्रा मगन हो जाते है तथा देवउठनी एकादशी को भगवान विष्णु नींद से जागते हैं। इस चार माह यानी चातुर्मास के दिनों में भगवान क्षीर सागर में सोते हैं। इस दौरान कोई भी मांगलिक कार्य नहीं किया जाता है। वहीं, देवउठनी एकादशी से शादी, सगाई समेत सभी मांगलिक कार्य का भी शुभारंभ होता है।
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