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Showing posts from September, 2022

काली कथा

  माँ दुर्गा के स्वरुप माँ काली की पूजा नवरात्र के सातवे दिन में होती है।  आइये जाने माँ काली की कथा  दारुक वध  एक बार दारुक नामक असुर ने ब्रह्मा को प्रसन्न कर उनसे अमरता का वरदान माँगा। जब ब्रह्म जी ने अमरता का वरदान देने से मना किया तो दारुक ने उनसे अप्पा शक्ति एवं स्त्री के द्वारा मारे जाने का वर माँगा। उसे खुद पर इतना घमंड था की कोई स्त्री उसे मार ही नहीं सकती।   ब्रह्मा के द्वारा दिए गए वरदान से वह देवों और ब्राह्मणों को अत्यंत दुःख देने लगा। उसने सभी धर्मिक अनुष्ठान बंद करा दिए और स्वर्गलोक में अपना राज्य स्थापित कर लिया। सभी देवता,  भगवान ब्रह्मा और विष्णु के पास पहुंचे। तब ब्रह्मा जी ने बताया की यह दुष्ट केवल स्त्री द्वारा ही मारा जायेगा। तब ब्रह्मा, विष्णु सहित सभी देव स्त्री रूप धर कर दुष्ट दारुक से लड़ने गए। परतु दैत्य दारुक अत्यंत बलशाली था, उसने उन सभी को युद्ध में परास्त कर दिया।  इसके बाद ब्रह्मा, विष्णु समेत सभी देव भगवान शिव के धाम कैलाश पर्वत पहुंचे तथा उन्हें दैत्य दारुक के विषय में बताया। भगवान शिव ने उनकी बात सुन, माँ पार्वती की ओर देखा और कहा हे कल्याणी! जगत के हित

नवरात्र कथा

 माँ दुर्गा के कई स्वरूप है। इनके कुछ प्रमुख स्वरूप माता सती, माँ चामुंडा, माँ लक्ष्मी, माँ पार्वती एवं माँ काली है।  एक पुरुष का जीवन एक स्त्री के बिना अधूरा होता है। ब्रह्मा, विष्णु और महेश को सम्पूर्ण करती है माँ दुर्गा। इन्होने लक्ष्मी रूप में विष्णु तथा पार्वती रूप में शिव को सम्पूर्ण किया। माँ दुर्गा के अनेक रूप इस ब्रह्माण्ड को सम्पूर्ण बनाते है।  नवरात्र कथा  भारतवर्ष,  आदि काल में, वर्ष के चार ऋतुओं में, माता के नौ रुपों का पूजन नवरात्र के रूप में प्रचलित हुआ।  चार नवरात्रि में से सबसे ज्यादा प्रचलन नववर्ष के नवरात्रि (चैत्र माह) के वसंत नवरात्रि का हुआ।  कई वर्ष के बाद, त्रेता युग मे चैत्र मास की नवरात्रि के नवे दिन (चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी को) भगवान श्रीराम का जन्म हुआ, जिसे रामनवमी के रूप में मनाया जाता है।  रामनवमी के दिन सरयू नदी में नहा कर भगवान श्रीराम का पूजन किया जाता है।  श्रीराम के जन्म का वर्णन भये प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी। हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी॥ लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी। भूषन वनमाला नयन बिसाला सोभासिन्ध

संपूर्ण बुध कथा

 बुध पीले रंग की पुष्पमाला तथा पीला वस्त्र धारण करते हैं। उनके शरीर की वर्ण कनेर के पुष्प की भाँती है। बुद्ध को एक शुभ ग्रह एवं बुद्धि का देवता माना जाता है।  बुध ग्रह का सूर्य और शुक्र के साथ मित्र भाव तथा चंद्रमा से शत्रुतापूर्ण भाव है। बुध ग्रह का अन्य ग्रहों के प्रति सामान्य भाव है। यह ग्रह बुद्धि, बुद्धिवर्ग, संचार, विश्लेषण, चेतना (विशेष रूप से त्वचा), विज्ञान, गणित, व्यापार, शिक्षा और अनुसंधान का प्रतिनिधित्व करता है। सभी प्रकार के लिखित शब्द और सभी प्रकार की यात्राएं बुध के अधीन आती हैं। हरे रंग, धातु, कांसा और रत्नों में पन्ना बुद्ध की प्रिय वस्तुएं हैं। इनके साथ जुड़ी- दिशा उत्तर(ईशानकोण) है, मौसम शरद ऋतु और तत्व पृथ्वी है। जिनके कुंडली में बुध मजबूत होता है वो व्यपार और नौकरी में तरक्की करते है। बुध मंत्र ॐ ब्रां ब्रीं ब्रौं स: बुधाय नम: ॐ बुं बुधाय नम: बुध जन्म कथा  महर्षि अत्रि और देवी अनुसूया के पुत्र चंद्र देव शिक्षा के लिए ऋषि बृहस्पति देव को अपना गुरु बनाया। बृहस्पति की पत्नी तारा चंद्र देव  की सुंदरता पर मोहित होकर उनसे प्रेम करने लगी। तदोपरांत वह चंद्रमा के संग सहवास

राम चालीसा

  ॥ दोहा ॥ आदौ राम तपोवनादि गमनं हत्वाह् मृगा काञ्चनं।  वैदेही हरणं जटायु मरणं सुग्रीव संभाषणं ॥ बाली निर्दलं समुद्र तरणं लङ्कापुरी दाहनम्।  पश्चद्रावनं कुम्भकर्णं हननं एतद्धि रामायणं ॥ ॥ चौपाई ॥ श्री रघुवीर भक्त हितकारी। सुन लीजै प्रभु अरज हमारी॥   1 निशिदिन ध्यान धरै जो कोई। ता सम भक्त और नहिं होई॥ ध्यान धरे शिवजी मन माहीं। ब्रह्म इन्द्र पार नहिं पाहीं॥ जय जय जय रघुनाथ कृपाला । सदा करो सन्तन प्रतिपाला ॥ दूत तुम्हार वीर हनुमाना। जासु प्रभाव तिहूं पुर जाना॥ तब भुज दण्ड प्रचण्ड कृपाला। रावण मारि सुरन प्रतिपाला॥ तुम अनाथ के नाथ गुंसाई। दीनन के हो सदा सहाई॥ ब्रह्मादिक तव पारन पावैं। सदा ईश तुम्हरो यश गावैं॥ चारिउ वेद भरत हैं साखी। तुम भक्तन की लज्जा राखीं॥ गुण गावत शारद मन माहीं। सुरपति ताको पार न पाहीं॥ नाम तुम्हार लेत जो कोई। ता सम धन्य और नहिं होई॥ राम नाम है अपरम्पारा। चारिहु वेदन जाहि पुकारा॥ गणपति नाम तुम्हारो लीन्हो। तिनको प्रथम पूज्य तुम कीन्हो॥ शेष रटत नित नाम तुम्हारा। महि को भार शीश पर धारा॥ फूल समान रहत सो भारा। पाव न कोऊ तुम्हरो पारा॥ भरत नाम तुम्हरो उर धारो। तासों कबहुं न रण

दुर्गा चालीसा

  ॥ चौपाई ॥   नमो नमो दुर्गे सुख करनी। नमो नमो दुर्गे दुःख हरनी॥    1  निरंकार है ज्योति तुम्हारी। तिहूं लोक फैली उजियारी॥ शशि ललाट मुख महाविशाला। नेत्र लाल भृकुटि विकराला॥  रूप मातु को अधिक सुहावे। दरश करत जन अति सुख पावे॥ तुम संसार शक्ति लै कीना। पालन हेतु अन्न धन दीना॥  अन्नपूर्णा हुई जग पाला। तुम ही आदि सुन्दरी बाला॥ प्रलयकाल सब नाशन हारी। तुम गौरी शिवशंकर प्यारी॥  शिव योगी तुम्हरे गुण गावें। ब्रह्मा विष्णु तुम्हें नित ध्यावें॥ रूप सरस्वती को तुम धारा। दे सुबुद्धि ऋषि मुनिन उबारा॥  धरयो रूप नरसिंह को अम्बा। परगट भई फाड़कर खम्बा॥ रक्षा करि प्रह्लाद बचायो। हिरण्याक्ष को स्वर्ग पठायो॥  लक्ष्मी रूप धरो जग माहीं। श्री नारायण अंग समाहीं॥ क्षीरसिन्धु में करत विलासा। दयासिन्धु दीजै मन आसा॥  हिंगलाज में तुम्हीं भवानी। महिमा अमित न जात बखानी॥ मातंगी अरु धूमावति माता। भुवनेश्वरी बगला सुख दाता॥  श्री भैरव तारा जग तारिणी। छिन्न भाल भव दुःख निवारिणी॥ केहरि वाहन सोह भवानी। लांगुर वीर चलत अगवानी॥  कर में खप्पर खड्ग विराजै। जाको देख काल डर भाजै॥ सोहै अस्त्र और त्रिशूला। जाते उठत शत्रु हिय शूला॥  नगर

श्री काली चालीसा

 ॥ दोहा ॥ जयकाली कलिमलहरण, महिमा अगम अपार । महिष मर्दिनी कालिका , देहु अभय अपार ॥ ॥ चौपाई ॥ रि मद मान मिटावन हारी। मुण्डमाल गल सोहत प्यारी ॥   1  अष्टभुजी सुखदायक माता। दुष्टदलन जग में विख्याता ॥ भाल विशाल मुकुट छवि छाजै। कर में शीश शत्रु का साजै ॥ दूजे हाथ लिए मधु प्याला। हाथ तीसरे सोहत भाला ॥ चौथे खप्पर खड्ग कर पांचे। छठे त्रिशूल शत्रु बल जांचे ॥ सप्तम करदमकत असि प्यारी। शोभा अद्भुत मात तुम्हारी ॥ अष्टम कर भक्तन वर दाता। जग मनहरण रूप ये माता ॥ भक्तन में अनुरक्त भवानी। निशदिन रटें ॠषी-मुनि ज्ञानी ॥ महशक्ति अति प्रबल पुनीता। तू ही काली तू ही सीता ॥ पतित तारिणी हे जग पालक। कल्याणी पापी कुल घालक ॥ शेष सुरेश न पावत पारा। गौरी रूप धर्यो इक बारा ॥ तुम समान दाता नहिं दूजा। विधिवत करें भक्तजन पूजा ॥ रूप भयंकर जब तुम धारा। दुष्टदलन कीन्हेहु संहारा ॥ नाम अनेकन मात तुम्हारे। भक्तजनों के संकट टारे ॥ कलि के कष्ट कलेशन हरनी। भव भय मोचन मंगल करनी ॥ महिमा अगम वेद यश गावैं। नारद शारद पार न पावैं ॥ भू पर भार बढ्यौ जब भारी। तब तब तुम प्रकटीं महतारी ॥ आदि अनादि अभय वरदाता। विश्वविदित भव संकट त्राता ॥ कुस

सूर्य चालीसा

  ॥दोहा॥ कनक बदन कुण्डल मकर, मुक्ता माला अङ्ग। पद्मासन स्थित ध्याइए, शंख चक्र के सङ्ग॥ ॥चौपाई॥ जय सविता जय जयति दिवाकर। सहस्त्रांशु सप्ताश्व तिमिरहर॥   1  भानु पतंग मरीची भास्कर। सविता हंस सुनूर विभाकर॥  विवस्वान आदित्य विकर्तन। मार्तण्ड हरिरूप विरोचन॥ अम्बरमणि खग रवि कहलाते। वेद हिरण्यगर्भ कह गाते॥  सहस्त्रांशु प्रद्योतन, कहिकहि। मुनिगन होत प्रसन्न मोदलहि॥ अरुण सदृश सारथी मनोहर। हांकत हय साता चढ़ि रथ पर॥ मंडल की महिमा अति न्यारी। तेज रूप केरी बलिहारी॥ उच्चैःश्रवा सदृश हय जोते। देखि पुरन्दर लज्जित होते॥ मित्र मरीचि, भानु, अरुण, भास्कर। सविता सूर्य अर्क खग कलिकर॥ पूषा रवि आदित्य नाम लै। हिरण्यगर्भाय नमः कहिकै॥ द्वादस नाम प्रेम सों गावैं। मस्तक बारह बार नवावैं॥ चार पदारथ जन सो पावै। दुःख दारिद्र अघ पुंज नसावै॥ नमस्कार को चमत्कार यह। विधि हरिहर को कृपासार यह॥ सेवै भानु तुमहिं मन लाई। अष्टसिद्धि नवनिधि तेहिं पाई॥ बारह नाम उच्चारन करते। सहस जनम के पातक टरते॥ उपाख्यान जो करते तवजन। रिपु सों जमलहते सोतेहि छन॥ धन सुत जुत परिवार बढ़तु है। प्रबल मोह को फंद कटतु है॥ अर्क शीश को रक्षा करते। रवि लला

शनि चालीसा

  ॥ दोहा ॥ जय गणेश गिरिजा सुवन, मंगल करण कृपाल । दीनन के दुख दूर करि, कीजै नाथ निहाल ॥ जय जय श्री शनिदेव प्रभु, सुनहु विनय महाराज । करहु कृपा हे रवि तनय, राखहु जन की लाज ॥ ॥ चौपाई ॥ जयति जयति शनिदेव दयाला । करत सदा भक्तन प्रतिपाला ॥   1  चारि भुजा, तनु श्याम विराजै । माथे रतन मुकुट छबि छाजै ॥ परम विशाल मनोहर भाला । टेढ़ी दृष्टि भृकुटि विकराला ॥ कुण्डल श्रवण चमाचम चमके । हिय माल मुक्तन मणि दमके ॥  कर में गदा त्रिशूल कुठारा । पल बिच करैं अरिहिं संहारा ॥ पिंगल, कृष्णों, छाया नन्दन । यम, कोणस्थ, रौद्र, दुखभंजन ॥ सौरी, मन्द, शनी, दश नामा । भानु पुत्र पूजहिं सब कामा ॥ जा पर प्रभु प्रसन्न ह्वैं जाहीं । रंकहुँ राव करैं क्षण माहीं ॥  पर्वतहू तृण होई निहारत । तृणहू को पर्वत करि डारत ॥ राज मिलत बन रामहिं दीन्हयो । कैकेइहुँ की मति हरि लीन्हयो ॥ बनहूँ में मृग कपट दिखाई । मातु जानकी गई चुराई ॥ लखनहिं शक्ति विकल करि डारा । मचिगा दल में हाहाकारा ॥  रावण की गतिमति बौराई । रामचन्द्र सों बैर बढ़ाई ॥ दियो कीट करि कंचन लंका । बजि बजरंग बीर की डंका ॥ नृप विक्रम पर तुहि पगु धारा । चित्र मयूर निगलि गै हारा ॥ हा

संपूर्ण शनि कथा

 शनिदेव के जनम की कथा  भगवान सूर्यदेव का विवाह राजा दक्ष की कन्या संज्ञा के साथ हुआ।  भगवान सूर्यदेव+ संज्ञा -->  वैस्वत मनु और यमराज(पुत्र), यमुना(पुत्री)  संज्ञा भगवान सूर्यदेव के अत्यधिक तेज और तप सहन नहीं कर पाती थी। सूर्यदेव के तेजस्विता के कारण वह बहुत परेशान रहती थी। इसके लिए संज्ञा ने निश्चय किया कि उन्हें तपस्या से अपने तेज को बढ़ाना होगा और तपोबल से भगवान सूर्यदेव की अग्नि को कम करना होगा। इसके लिए संज्ञा ने सोचा कि किसी एकांत जगह पर जाकर घोर तपस्या करनी होगा। संज्ञा ने अपने तपोबल और शक्ति से अपने ही जैसी दिखने वाली छाया को उत्पन्न किया। जिसका नाम सुवर्णा रखा। इसके बाद संज्ञा ने छाया सुवर्णा को अपने बच्चों की जिम्मेदारी सौंपा और फिर तपस्या के लिए घने जंगल में शरण ले लिया। कुछ दिन बाद भगवान सूर्यदेव औऱ छाया सुवर्णा के मिलन से तीन बच्चों जन्म हुआ। भगवान सूर्यदेव+ सुवर्णा -->   मनु और शनिदेव(पुत्र), भद्रा(पुत्री)  नवग्रहों के स्वामी/न्याय के स्वामी  एक बार भगवान सूर्यदेव पत्नी सुवर्णा से मिलने आए। सूर्यदेव के तप और तेज के कारण शनिदेव महाराज ने अपनी आंखें बंद कर ली और वह उन

सरस्वती चालीसा

  ॥ दोहा ॥ जनक जननि पद कमल रज,निज मस्तक पर धारि। बन्दौं मातु सरस्वती, बुद्धि बल दे दातारि॥ पूर्ण जगत में व्याप्त तव, महिमा अमित अनंतु। रामसागर के पाप को, मातु तुही अब हन्तु॥ ॥ चौपाई ॥ जय श्री सकल बुद्धि बलरासी। जय सर्वज्ञ अमर अविनासी॥   1 जय जय जय वीणाकर धारी। करती सदा सुहंस सवारी॥ रूप चतुर्भुजधारी माता। सकल विश्व अन्दर विख्याता॥ जग में पाप बुद्धि जब होती। जबहि धर्म की फीकी ज्योती॥ तबहि मातु ले निज अवतारा। पाप हीन करती महि तारा॥ बाल्मीकि जी थे बहम ज्ञानी। तव प्रसाद जानै संसारा॥ रामायण जो रचे बनाई। आदि कवी की पदवी पाई॥ कालिदास जो भये विख्याता। तेरी कृपा दृष्टि से माता॥ तुलसी सूर आदि विद्धाना। भये और जो ज्ञानी नाना॥ तिन्हहिं न और रहेउ अवलम्बा। केवल कृपा आपकी अम्बा॥ करहु कृपा सोइ मातु भवानी। दुखित दीन निज दासहि जानी॥ पुत्र करै अपराध बहूता। तेहि न धरइ चित सुन्दर माता॥ राखु लाज जननी अब मेरी। विनय करूं बहु भांति घनेरी॥ मैं अनाथ तेरी अवलंबा। कृपा करउ जय जय जगदंबा॥ मधु कैटभ जो अति बलवाना। बाहुयुद्ध विष्णू ते ठाना॥ समर हजार पांच में घोरा। फिर भी मुख उनसे नहिं मोरा॥ मातु सहाय भई तेहि काला। बुद्ध

लक्ष्मी चालीसा

  ।। दोहा ।। मातु लक्ष्मी करि कृपा, करो हृदय में वास। मनोकामना सिद्घ करि, परुवहु मेरी आस॥ ।। सोरठा ।। यही मोर अरदास, हाथ जोड़ विनती करुं। सब विधि करौ सुवास, जय जननि जगदंबिका॥ ।। चौपाई ।। सिन्धु सुता मैं सुमिरौ तोही। ज्ञान बुद्घि विघा दो मोही॥       1  तुम समान नहिं कोई उपकारी। सब विधि पुरवहु आस हमारी॥ जय जय जगत जननि जगदम्बा । सबकी तुम ही हो अवलम्बा॥ तुम ही हो सब घट घट वासी। विनती यही हमारी खासी॥ जग जननी जय सिन्धु कुमारी। दीनन की तुम हो हितकारी॥ विनवौं नित्य तुमहिं महारानी। कृपा करौ जग जननि भवानी॥ केहि विधि स्तुति करौं तिहारी। सुधि लीजै अपराध बिसारी॥ कृपा दृष्टि चितवो मम ओरी। जगजननी विनती सुन मोरी॥ ज्ञान बुद्घि जय सुख की दाता। संकट हरो हमारी माता॥ क्षीरसिन्धु जब विष्णु मथायो। चौदह रत्न सिन्धु में पायो॥ चौदह रत्न में तुम सुखरासी। सेवा कियो प्रभु बनि दासी॥ जब जब जन्म जहां प्रभु लीन्हा। रुप बदल तहं सेवा कीन्हा॥ स्वयं विष्णु जब नर तनु धारा। लीन्हेउ अवधपुरी अवतारा॥ तब तुम प्रगट जनकपुर माहीं। सेवा कियो हृदय पुलकाहीं॥ अपनायो तोहि अन्तर्यामी। विश्व विदित त्रिभुवन की स्वामी॥ तुम सम प्रबल शक्ति नह

श्री विष्णु चालीसा

 ॥  दोहा ॥  विष्णु सुनिए विनय सेवक की चितलाय। कीरत कुछ वर्णन करूं दीजै ज्ञान बताय। ॥  चौपाई ॥  नमो विष्णु भगवान खरारी। कष्ट नशावन अखिल बिहारी॥   1  प्रबल जगत में शक्ति तुम्हारी। त्रिभुवन फैल रही उजियारी॥ सुन्दर रूप मनोहर सूरत। सरल स्वभाव मोहनी मूरत॥ तन पर पीतांबर अति सोहत। बैजन्ती माला मन मोहत॥ शंख चक्र कर गदा बिराजे। देखत दैत्य असुर दल भाजे॥ सत्य धर्म मद लोभ न गाजे। काम क्रोध मद लोभ न छाजे॥ संतभक्त सज्जन मनरंजन। दनुज असुर दुष्टन दल गंजन॥ सुख उपजाय कष्ट सब भंजन। दोष मिटाय करत जन सज्जन॥ पाप काट भव सिंधु उतारण। कष्ट नाशकर भक्त उबारण॥ करत अनेक रूप प्रभु धारण। केवल आप भक्ति के कारण॥ धरणि धेनु बन तुमहिं पुकारा। तब तुम रूप राम का धारा॥ भार उतार असुर दल मारा। रावण आदिक को संहारा॥ आप वराह रूप बनाया। हरण्याक्ष को मार गिराया॥ धर मत्स्य तन सिंधु बनाया। चौदह रतनन को निकलाया॥ अमिलख असुरन द्वंद मचाया। रूप मोहनी आप दिखाया॥ देवन को अमृत पान कराया। असुरन को छवि से बहलाया॥ कूर्म रूप धर सिंधु मझाया। मंद्राचल गिरि तुरत उठाया॥ शंकर का तुम फन्द छुड़ाया। भस्मासुर को रूप दिखाया॥ वेदन को जब असुर डुबाया। कर प्र

पार्वती चालीसा

 ॥ दोहा ॥ जय गिरी तनये दक्षजे शम्भू प्रिये गुणखानी गणपति जननी पार्वती अम्बे ! शक्ति ! भवानी ! ॥ चौपाई॥ ब्रह्मा भेद न तुम्हरो पावे, पंच बदन नित तुमको ध्यावे।    1 षड्मुख कहि न सकत यश तेरो, सहसबदन श्रम करत घनेरो।। तेऊ पार न पावत माता, स्थित रक्षा लय हिय सजाता। अधर प्रवाल सदृश अरुणारे, अति कमनीय नयन कजरारे।। ललित ललाट विलेपित केशर, कुंकुंम अक्षत शोभा मनहर। कनक बसन कंचुकि सजाए, कटी मेखला दिव्य लहराए।। कंठ मदार हार की शोभा, जाहि देखि सहजहि मन लोभा। बालारुण अनंत छबि धारी, आभूषण की शोभा प्यारी।। नाना रत्न जड़ित सिंहासन, तापर राजति हरि चतुरानन। इन्द्रादिक परिवार पूजित, जग मृग नाग यक्ष रव कूजित।। गिर कैलास निवासिनी जय जय, कोटिक प्रभा विकासिनी जय जय। त्रिभुवन सकल कुटुंब तिहारी, अणु अणु महं तुम्हारी उजियारी।। हैं महेश प्राणेश तुम्हारे, त्रिभुवन के जो नित रखवारे। उनसो पति तुम प्राप्त कीन्ह जब, सुकृत पुरातन उदित भए तब।। बूढ़ा बैल सवारी जिनकी, महिमा का गावे कोउ तिनकी। सदा श्मशान बिहारी शंकर, आभूषण हैं भुजंग भयंकर।। कण्ठ हलाहल को छबि छायी, नीलकण्ठ की पदवी पायी। देव मगन के हित अस किन्हो, विष लै आपु तिन

हनुमान चालीसा

हनुमान चालीसा की रचना तुलसीदास जी ने अवधी भाषा में की थी।   ।। दोहा ।। श्रीगुरु चरन सरोज रज, निजमन मुकुरु सुधारि। बरनउं रघुबर बिमल जसु, जो दायक फल चारि।। बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन-कुमार। बल बुधि बिद्या देहु मोहिं, हरहु कलेस बिकार।। ।। चौपाई ।। जय हनुमान ज्ञान गुन सागर। जय कपीस तिहुं लोक उजागर।।  1 राम दूत अतुलित बल धामा। अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा।। महाबीर बिक्रम बजरंगी। कुमति निवार सुमति के संगी।। कंचन बरन बिराज सुबेसा। कानन कुण्डल कुँचित केसा।। हाथ बज्र औ ध्वजा बिराजे। कांधे मूंज जनेउ साजे।। शंकर सुवन केसरी नंदन। तेज प्रताप महा जग वंदन।। बिद्यावान गुनी अति चातुर। राम काज करिबे को आतुर।। प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया। राम लखन सीता मन बसिया।। सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा। बिकट रूप धरि लंक जरावा।। भीम रूप धरि असुर संहारे। रामचन्द्र के काज संवारे।। लाय सजीवन लखन जियाये। श्री रघुबीर हरषि उर लाये।। रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई। तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई।। सहस बदन तुम्हरो जस गावैं। अस कहि श्रीपति कण्ठ लगावैं।। सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा। नारद सारद सहित अहीसा।। जम कुबेर दिगपाल जहां ते। कबि को

चालीसा संग्रह

चालीसा शब्द 40 से बना है। क्या होता है चालीसा ये जानने के लिए दोहा और चौपाई जानना जरूरी है।  दोहा- दो पंक्तियों की कविता जिसके प्रत्येक पंक्ति में 24 मात्राएँ (13+11) चौपाई- चार पंक्तियों की कविता जिसके प्रत्येक पंक्ति में 16 मात्राएँ  चालीसा कई चौपाईयों को नियोजित ढंग से सुवय्वस्थितकरण है। और समान्यता चालीसा का प्रारम्भ और अंत दोहो से किया जाता है।  चालीसा- 40 पंक्ति में लिखी चौपाइयाँ  + दोहे (चालीसा के प्रारम्भ + अंत में) एक बार तुलसीदास जी को राजा अखबर के दरबार में बुलाया गया। जहाँ पर उनसे अखबर की प्रशंसा में काव्य लिखने को बोला गया।  तुलसीदास के मना करने पर तुलसीदास जी को जेल में डाल दिया गया। जेल के अंदर तुलसीदास ने अवधी भाषा में हनुमान चालीसा की रचना की।  जब तुलसीदास ने जेल के अंदर हनुमान चालीसा का पाठ किया तो अखबर के दरबार एवं जेल में बंदरो ने उत्पात मचा दिया। परेशान होकर अखबर ने तुलसीदास को जेल से रिहा कर दिया तब जाकर बन्दर शांत हुए।  तुलसीदास की हनुमान चालीसा की रचना के बाद कई संतो ने अलग अलग देवी देवताओं के चालीसा की रचना की।  माना जाता है की सबसे पहले जिस चालीसा की रचना हुयी

शिव चालीसा

शिव चालीसा शिवपुराण से ली गई है और शिव पुराण के रचयिता महर्षि वेदव्यास  है। ॥ दोहा ॥ जय गणेश गिरिजा सुवन, मंगल मूल सुजान । कहत अयोध्यादास तुम, देहु अभय वरदान ॥ ॥ चौपाई ॥ जय गिरिजा पति दीन दयाला ।  सदा करत सन्तन प्रतिपाला ॥  1 भाल चन्द्रमा सोहत नीके ।  कानन कुण्डल नागफनी के ॥ अंग गौर शिर गंग बहाये ।  मुण्डमाल तन क्षार लगाए ॥ वस्त्र खाल बाघम्बर सोहे ।  छवि को देखि नाग मन मोहे ॥  मैना मातु की हवे दुलारी ।  बाम अंग सोहत छवि न्यारी ॥ कर त्रिशूल सोहत छवि भारी ।  करत सदा शत्रुन क्षयकारी ॥ नन्दि गणेश सोहै तहँ कैसे ।  सागर मध्य कमल हैं जैसे ॥ कार्तिक श्याम और गणराऊ ।  या छवि को कहि जात न काऊ ॥  देवन जबहीं जाय पुकारा ।  तब ही दुख प्रभु आप निवारा ॥ किया उपद्रव तारक भारी ।  देवन सब मिलि तुमहिं जुहारी ॥ तुरत षडानन आप पठायउ ।  लवनिमेष महँ मारि गिरायउ ॥ आप जलंधर असुर संहारा ।  सुयश तुम्हार विदित संसारा ॥  त्रिपुरासुर सन युद्ध मचाई ।  सबहिं कृपा कर लीन बचाई ॥ किया तपहिं भागीरथ भारी ।  पुरब प्रतिज्ञा तासु पुरारी ॥ दानिन महँ तुम सम कोउ नाहीं ।  सेवक स्तुति करत सदाहीं ॥ वेद नाम महिमा तव गाई।  अकथ अनादि भ