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छठ कथा

  छठ पूजा संतान प्राप्ति और संतान की दीर्घायु के लिए की जाती है। ये पूजा चार दिन की होती है।  प्रथम दिन - नहाय खाय द्वितीय दिन - खरना(खीर खाना) तृतीय दिन - निर्जला व्रत के साथ संध्या अर्घ्य चतुर्थ दिन - उगते सूर्य को अर्घ्य दे कर पारण इन चार दिनों में सूर्य देव और छठ मईया की पूजा की जाती है।  क्या है छठ मईया की कहानी? सूर्य की किरणें पेड़-पौधे, फल-फूल  को जीवन प्रदान करती है और यही पेड़ पौधे प्राणी जीवन का आधार है। इसीलिए सूर्य देव को जीवन प्रदायी माना जाता है।  आदिकाल में राजा प्रियंवद और रानी मालिनी की कोई संतान नहीं थी। इसलिए इस दंपति ने महर्षि कश्यप के कहने पर यज्ञ किया और यज्ञ उपरांत महर्षि कश्यप ने सूर्य देव का नमन कर प्रियंवद की पत्नी मालिनी को खीर दी, जिसके चलते उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई(छठ पूजा के द्वितीय दिन खीर खाने का प्रचलन)। लेकिन दुर्भाग्य वश उनका पुत्र मरा हुआ पैदा हुआ, जिससे विचलित हो राजा-रानी ने ख़ुद के प्राण त्यागने की सोची। तभी माँ कात्यायनी वहाँ प्रकट हुईं और माँ कात्यायनी के आशीर्वाद से राजा प्रियंवद और रानी मालिनी का पुत्र पुनर्जीवित हो गया।  माँ कात्यायनी

काशी की देव दीपावली

जब त्रिपुरासुर राक्षस ने अपने आतंक से मनुष्यों सहित देवी-देवताओं और ऋषि मुनियों आदि सभी को त्रस्त कर दिया था, तब सभी देव गणों ने भगवान शिव से उस राक्षस का अंत करने हेतु निवेदन किया।  जिसके बाद भगवान शिव ने त्रिपुरासुर राक्षस का वध कर दिया। देवता अत्यंत प्रसन्न होकर शिव जी का आभार व्यक्त करने के लिए उनकी नगरी काशी में पधारे। कार्तिक मास की पूर्णिमा को देवताओं ने काशी में अनेकों दीए जलाकर भगवान शिव का सत्कार किया। यही कारण है कि हर साल कार्तिक मास की पूर्णिमा पर  काशी में देव दीपावली मनाई जाती है। देव दीपावली हर साल दीपावली के 15 दिन बाद मनाया जाता है।  मान्यता है की इस दिन देवता पृथ्वी पर आकर गंगा में स्नान करते हैं। इस दिन दीपदान करने का भी विशेष महत्व होता है और इससे देवता गण भी प्रसन्न होते हैं।  

दीपावली

  उत्तर भारत में दीपावली को बड़े धूम धाम से 5 दिनों तक मनाया जाता है और हर एक दिन का एक अलग ही महत्व है। पहला दिन - धनतेरस  ( यमराज, धन के देवता कुबेर और आयुर्वेदाचार्य धन्वंतरि की पूजा ) दूसरे दिन - नरक चतुर्दशी, छोटी दीपावली तीसरा दिन - दीपावली ( माँ लक्ष्मी की पूजा ) चौथे दिन - गोवर्धन पूजा पांचवा दिन - भाई दूज ( यम द्वितीया ) कैसे हुयी थी दीपावली पर्व मनाने की शरुवात? सतयुग में जब देवता दुर्वासा ऋषि के श्राप से शक्तिहीन हो गये तो वो भगवान विष्णु के परामर्शानुसार दैत्यों के साथ समुद्र मंथन में जुट गए। जहाँ देवताओं की अगुवाई इन्द्र कर रहे थे, वही दैत्यों की अगुवाई प्रह्लाद पौत्र राजा बलि कर रहे थे। समुद्र मंथन के अंतिम चरण में भगवान धन्वंतरि( आयुर्वेद के भगवान ) अमृत कलश के साथ प्रकट हुए थे। ( इस दिन को बाद में धनतेरस के रूप में मनाया जाने लगा तथा भारत सरकार ने इस दिन को राष्ट्रीय आयुर्वेदिक दिवस घोषित किया है ) अमृत के प्रकट होते ही शक्तिशाली दैत्यों ने अमृत भगवान धन्वंतरि के हाँथ से छीन लिया। परन्तु दैत्यों के अमृतपान करने से पहले भगवान विष्णु वहाँ पर मोहिनी रूप में प्रकट होकर छल से

सम्पूर्ण बृहस्पति कथा

  बृहस्पति मंत्र ॐ ग्रां ग्रीं ग्रौं सः गुरुवे नमः! ॐ बृं बृहस्पतये नमः! पीला रंग, स्वर्ण धातु, पीला रत्न पुखराज एवं पीला नीलम, शीत ऋतु, पूर्व दिशा, अंतरिक्ष एवं आकाश तत्त्व बृहस्पति को प्रिय है। बृहस्पति एवं शुक्र देव बृहस्पति अंगऋषि के पुत्र है। इनकी शिक्षा दीक्षा इनके पिता अंगऋषि के आश्रम में हुयी थी। अंगऋषि के आश्रम में बृहस्पति एव शुक्राचार्य(शुक्र देव) ने साथ में शिक्षा ग्रहण की। ऋषि शुक्राचार्य के श्रेष्ठ होने के बाद भी ज्यादा सम्मान ऋषि बृहस्पति को मिलता था। इस बात पर ऋषि शुक्राचार्य ने अंगऋषि का आश्रम छोड़ दिया तथा बाकी की शिक्षा सनकऋषि और गौतम ऋषि से ली। जब बृहस्पति को देवताओं ने गुरु बनाया तब शुक्राचार्य ने दैत्यों को अपना शिष्य बना लिया। बृहस्पति एवं चंद्र देव ऋषि बृहस्पति से बहुत से देवताओं ने शिक्षा ली। चंद्र देव भी शिक्षा प्राप्ति के उद्देश्य से ऋषि बृहस्पति को अपना गुरु बनाया। बृहस्पति की पत्नी तारा चंद्र देव  की सुंदरता पर मोहित होकर उनसे प्रेम करने लगी। तदोपरांत वह चंद्रमा के संग सहवास भी कर गई एवं बृहस्पति को छोड़ ही दिया। बृहस्पति के वापस बुलाने पर तारा ने वापस आने स

नल दमयंती कथा

 जूआ में सब कुछ हार कर वनवास के दौरान एक दिन धर्मराज युधिष्ठिर दुखी बैठे थे। उन्होंने अपनी कहानी महर्षि बृहदश्व को सुनाकर पूछा- क्या आपने मुझ जैसा भाग्यहीन राजा देखा है? फिर महर्षि बृहदश्व ने धर्मराज युधिष्ठिर को नल-दमयन्ती की कथा सुनाई- निषाद देश में राजा वीरसेन के पुत्र नल थे। वे बड़े गुणवान्, परम सुन्दर, सत्यवादी, जितेन्द्रिय, सबके प्रिय, वेदज्ञ एवं ब्राह्मणभक्त थे। उनकी सेना बहुत बड़ी थी और वो स्वयं अस्त्रविद्या में बहुत निपुण थे। वे वीर, योद्धा, उदार और प्रबल पराक्रमी भी थे। उन्हें जूआ खेलने का भी कुछ शौक था। उन्हीं दिनों विदर्भ देश में भीम नाम के एक राजा राज्य करते थे। वे भी नल के समान ही सर्वगुण सम्पन्न और पराक्रमी थे। राजा भीम ने दमन ऋषि को प्रसन्न करके, उनके वरदान से चार संतानें प्राप्त की थीं। जिनमे तीन पुत्र और एक कन्या थी।  पुत्रों के नाम- दम, दान्त, और दमन  पुत्री का नाम- दमयन्ती  दमयन्ती लक्ष्मी के समान रूपवती थी। उसके नेत्र विशाल थे। देवताओं और यक्षों ने भी वैसी सुन्दरी कन्या कहीं नहीं देखि थी। उन दिनों कितने ही लोग विदर्भ देश से निषाद देश में आते और राजा नल के सामने दमय

काली कथा

  माँ दुर्गा के स्वरुप माँ काली की पूजा नवरात्र के सातवे दिन में होती है।  आइये जाने माँ काली की कथा  दारुक वध  एक बार दारुक नामक असुर ने ब्रह्मा को प्रसन्न कर उनसे अमरता का वरदान माँगा। जब ब्रह्म जी ने अमरता का वरदान देने से मना किया तो दारुक ने उनसे अप्पा शक्ति एवं स्त्री के द्वारा मारे जाने का वर माँगा। उसे खुद पर इतना घमंड था की कोई स्त्री उसे मार ही नहीं सकती।   ब्रह्मा के द्वारा दिए गए वरदान से वह देवों और ब्राह्मणों को अत्यंत दुःख देने लगा। उसने सभी धर्मिक अनुष्ठान बंद करा दिए और स्वर्गलोक में अपना राज्य स्थापित कर लिया। सभी देवता,  भगवान ब्रह्मा और विष्णु के पास पहुंचे। तब ब्रह्मा जी ने बताया की यह दुष्ट केवल स्त्री द्वारा ही मारा जायेगा। तब ब्रह्मा, विष्णु सहित सभी देव स्त्री रूप धर कर दुष्ट दारुक से लड़ने गए। परतु दैत्य दारुक अत्यंत बलशाली था, उसने उन सभी को युद्ध में परास्त कर दिया।  इसके बाद ब्रह्मा, विष्णु समेत सभी देव भगवान शिव के धाम कैलाश पर्वत पहुंचे तथा उन्हें दैत्य दारुक के विषय में बताया। भगवान शिव ने उनकी बात सुन, माँ पार्वती की ओर देखा और कहा हे कल्याणी! जगत के हित

नवरात्र कथा

 माँ दुर्गा के कई स्वरूप है। इनके कुछ प्रमुख स्वरूप माता सती, माँ चामुंडा, माँ लक्ष्मी, माँ पार्वती एवं माँ काली है।  एक पुरुष का जीवन एक स्त्री के बिना अधूरा होता है। ब्रह्मा, विष्णु और महेश को सम्पूर्ण करती है माँ दुर्गा। इन्होने लक्ष्मी रूप में विष्णु तथा पार्वती रूप में शिव को सम्पूर्ण किया। माँ दुर्गा के अनेक रूप इस ब्रह्माण्ड को सम्पूर्ण बनाते है।  नवरात्र कथा  भारतवर्ष,  आदि काल में, वर्ष के चार ऋतुओं में, माता के नौ रुपों का पूजन नवरात्र के रूप में प्रचलित हुआ।  चार नवरात्रि में से सबसे ज्यादा प्रचलन नववर्ष के नवरात्रि (चैत्र माह) के वसंत नवरात्रि का हुआ।  कई वर्ष के बाद, त्रेता युग मे चैत्र मास की नवरात्रि के नवे दिन (चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी को) भगवान श्रीराम का जन्म हुआ, जिसे रामनवमी के रूप में मनाया जाता है।  रामनवमी के दिन सरयू नदी में नहा कर भगवान श्रीराम का पूजन किया जाता है।  श्रीराम के जन्म का वर्णन भये प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी। हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी॥ लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी। भूषन वनमाला नयन बिसाला सोभासिन्ध